उत्तराखण्ड
लोकायुक्त नियुक्ति मामले में सुनवाई, उच्च न्यायालय ने मांगा राज्य सरकार से जवाब…
नैनीताल। उत्तराखंड राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति” एवं लोकायुक्त संस्थान को सुचारू किए जाने की प्रार्थना के साथ गौलापार निवासी “रविशंकर जोशी” के द्वारा दायर करी गई जनहित याचिका में आज माननीय उच्च न्यायालय, नैनीताल में सुनवाई हुई। याचिकाकर्ता “रविशंकर जोशी” द्वारा माननीय न्यायालय को बताया गया कि लोकायुक्त संस्थान के नाम पर वार्षिक 2 से 3 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं परंतु प्रदेश सरकार द्वारा आज तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की गई है।
याची द्वारा बताया गया कर्नाटक में तथा मध्य प्रदेश में लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जा रही है परंतु उत्तराखंड में तमाम घोटाले हो रहे हैं। हर एक छोटे से छोटा मामला उच्च न्यायालय में लाना पड़ रहा है।
हाईकोर्ट को अवगत कराया गया की वर्तमान में राज्य की सभी जांच एजेंसी सरकार के अधीन है, जिसका पूरा नियंत्रण राज्य के राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है। वर्तमान में उत्तराखंड राज्य में कोई भी ऐसी जांच एजेंसी नही है “जिसके पास यह अधिकार हो की वह बिना शासन की पूर्वानुमति के, किसी राजपत्रित अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा पजीकृत कर सके या जांच का किसी न्यायालय में चार्जशीट दाखिल कर सके”
उत्तराखंड राज्य की वर्तमान व्यवस्था में राज्य सरकार के प्रभाव व हस्तक्षेप से मुक्त ऐसी कोई भी जांच एजेंसी नही है, जो मुख्यमंत्री सहित किसी भी जनप्रतिनिधि या किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच और कार्यवाही कर सकें। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के नाम पर प्रचारित किया जाने वाला विजिलेंस विभाग भी राज्य पुलिस का ही हिस्सा है, जिसका सम्पूर्ण नियंत्रण पुलिस मुख्यालय, सतर्कता विभाग या मुख्यमंत्री कार्यालय के पास ही रहता है।
इस कारण राज्य की विजिलेंस का भारतीय प्रशासनिक सेवा, राज्य प्रशासनिक सेवा के किसी अधिकारी या किसी शीर्ष राजनैतिक व्यक्ति पर कार्यवाही का कोई इतिहास नही है। राज्य सरकार के नियंत्रण वाली इन जांच एजेंसियों में “जांच एजेंसी कोकिन-किन बिंदुओं पर जांच करनी है, जांच एजेंसी में नियुक्ति व स्थानांतरण सहित सभी प्रशासनिक अधिकार, जांच समिति का बजट, चार्जसीट दाखिल करने की स्वीकृति देना, अभियोग दर्ज करने की स्वीकृति देना, जांच के दौरान जांच की पूरी मॉनिटरिंग, जांच के दौरान जांच अधिकारियों को सभी प्रकार के निर्देश देना, जांच के दौरान जांच की समीक्षा करना आदि पूरा नियंत्रण राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है।
कई बार तो जांच के बीच में ही, बिना उचित कारण के पूरी जांच एजेंसी को ही बदल दिया गया है। क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में उपलब्ध सभी जांच एजेंसियों में राज्य सरकार के नियंत्रण वाले कर्मचारी और अधिकारी ही जांच- अधिकारी होते है, इसलिए स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच पूरी तरह से सत्ताधारी दल की मंशा और उसके राजनैतिक एजेंडे पर निर्भर करती है।
राज्य के अब तक के इतिहास में किसी शीर्ष राजनैतिक या प्रशासनिक व्यक्ति की जांच और कार्यवाही का नहीं होना इसका स्पष्ट प्रमाण है। राज्य की लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा में हुई धांधली, खनन-भूमि सहित प्रशासनिक स्तर पर गंभीर भ्रष्टाचार के अनगिनत प्रकरणों में, जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों द्वारा अजीत की गई अकूल संपत्ति सहित किसी भी प्रकरण में वर्तमान की किसी जांच एजेंसी ने आजतक कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का उदाहरण प्रस्तुत नही किया है।
यही कारण है की प्रदेश के किसी भी नागरिक को वर्तमान जांच व्यवस्था पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं रहा है, जिसका परिणाम कुछ दिनों पूर्व राज्य के प्रतियोगी युवाओं द्वारा हतासा और आक्रोश में की गई हिंसा के रूप में सामने आया है। भ्रष्टाचार से कुंठित समाज अराजक होता जा रहा है। एक पूरी तरह से पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच व्यवस्था राज्य के नागरिकों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है,।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है की पूर्व के विधानसभा चुनावों में राजनैतिक दलों द्वारा राज्य में अपनी सरकार बनने पर प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए एक सशक्त लोकायुक्त की नियुक्ति का वादा किया था।
जिसका प्रभाव यह हुआ कि राज्य की जनता ने उक्त राजनीतिक दल को बहुमत देकर राज्य की सत्ता सौंपी, पर स्वयं के ऊपर लोकायुक्त जैसे सशक्त निगरानी तंत्र को लागू नहीं होने देने की मंशा से राजनैतिक नेतृत्व द्वारा राज्य में आजतक लोकायुक्त की नियुक्ति नही की गई है।