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उत्तराखण्ड

उत्तराखंड में हरेला लोक पर्व का विशेष महत्व

भगवान शिव परिवार को समर्पित है हरेला पर्व

देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर ऋतुओं के अनुसार कई अनेक पर्व मनाए जाते हैं। यह सभी पर्व जहां हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं,वहीं पहाड़ की परंपराओं को भी कायम रखे हुए हैं। इन्हीं खास पर्वो में हरियाली का प्रतीक हरेला पर्व भी शामिल है। हरेला उत्तराखंड में एक लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है। हरेला शब्द का तात्पर्य हरयाली से है, यह पर्व ऋतुओं के अनुसार वर्ष में तीन बार आता हैं, पहला चैत मास में दूसरा श्रावण मास में तथा तीसरा वर्ष का आखिरी पर्व हरेला आश्विन मास में मनाया जाता हैं।

खासतौर पर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मनाये जाने वाला हरेला, यहां के जनमानस में बसा है। आस्था के प्रतीक इस पर्व को ना सिर्फ त्योहार के रूप में मनाया जाता है बल्कि यह किसानों से भी जुड़ा हुआ है। कुछ स्थानों पर प्रकृति संरक्षण के रूप में भी इसे मनाए जाने का प्रचलन है। गांव हो या फिर शहर सभी जगहों पर मनाए जाने वाले हरेला को मंदिर के पास किसी टोकरी में मिट्टी रख कर विधिवत बोया जाता है। इसे स्थापित करने के बाद 10 दिन तक रोज पूजा की जाती है और जल चढ़ाया जाता है। दसवें दिन उसे काटा जाता है। उसे सबसे पहले भगवान को चढ़ाने के साथ बड़े बुजुर्ग अपने बेटे नाती.पोतों को हरेला लगाते हैं, और उनकी लम्बी उर्म की कामना करते हैं। पहाड़ में त्योहारों का आगाज करने वाले इस पर्व पर पकवान भी बनाए जाते हैं तो रिस्तेदार.नातेदारों को हरेला डाक से भेजने की भी परम्परा है, हरेला पर्व ऐसा पर्व है जो मेलों का आगाज भी करता है तो इसका इंतजार भी साल भर रहता है। हरेले को लेकर स्थानीय बोली भाषा में आशीर्वाद इस तरह दिया जाता है।
“जी रया जागि रया, यो दिन बार भेटने रया, दुबक जस जड़ है जो, पात जस पौल है जो स्यालक जस त्राण है जो हिमालय में ह्यू छन तक गंगा में पाणी छन तक हरेला त्यार मानते रया, जी रया जागी रया,
यानि दूर्वा की जड़ की तरह फैलने,लोमड़ी की जैसी तेज चालाक बुद्धि बढ़ने व हिमालय में जब तक बर्फ रहे तब तक जीवित रहने का आशीर्वाद शुभकामनाएं दी जाती है।

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हरेला घर मे सुख,समृद्धि व शान्ति के लिए बोया और काटा जाता है। हरेला अच्छी फसल का सूचक भी है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलों को नुकसान ना हो।

यह भी मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही फायदा होगा। वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है,लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से स्थानीय ग्राम देवता मंदिर में भी मनाया जाता हैं। गाँव के लोगों द्वारा मिलकर मंदिर में हरेला बोई जाती हैं और सभी लोगों द्वारा इस पर्व को हर्षोल्लास से मनाया जाता हैं। श्रावण मास में बोया जाने वाला हरेला अकसर घरों में ही बोया जाता है। सावन का महीना हिन्दू धर्म में पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। यह महिना भगवान शिव को समर्पित है और भगवान शिव को यह महीना अत्यधिक पसंद भी है।

इसीलिए यह त्यौहार भी भगवान शिव परिवार को समर्पित है और उत्तराखंड की भूमि को तो शिव भूमि,देवभूमि कहा जाता है। क्योंकि भगवान शिव का निवास स्थान यही देवभूमि कैलाश,हिमालय में ही है। इसीलिए श्रावण मास के हरेले में भगवान शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है।शिव-माता पार्वती और भगवान गणेश की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बना कर उन्हें प्राकृतिक रंग से सजाया-संवारा जाता है। जिन्हें स्थानीय भाषा में डिकारे भी कहा जाता है। हरेले के दिन इन मूर्तियों की पूजा अर्चना हरेले से की जाती है । कुछ इलाकों में इस पर्व को शिव पार्वती विवाह के रूप में भी मनाया जाता है।
-सुरेश पाठक

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