उत्तराखण्ड
दुर्भाग्य- कैसे भूल गये गंगोलीहाट के प्रमुख राज्य आन्दोलनकारी कैलाश पाठक को,जानिए हकीकत
–अनेकों साक्ष्य पेश करने पर भी उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी का दर्जा न देना आंदोलनकारी का अपमान।
“उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर तमाम राज्य आंदोलनकारी 23 साल बाद भी गुमनाम हैं, उनका सही से आज तक चिन्हीकरण नहीं हुआ है। पर्वत प्रेरणा न्यूज पोर्टल द्वारा गुमनामी प्रमुख राज्य आंदोलनकारियों के हक में एक सीरीज चलाई जा रही है जो प्रत्येक सप्ताह आप तक पहुंचाई जायेगी। आशा है आप लोग भी सहयोग प्रदान करते हुए आन्दोलनकारियों के हित में चिह्नीकरण कर सप्रमाण महानुभावों के संबंध में लिखकर हमें भेजें।“
– सुरेश पाठक
हल्द्वानी। उत्तराखंड राज्य बने 23 साल बीत गए लेकिन जिन प्रमुख राज्य आंदोलनकारियों ने ईमानदारी से आंदोलन को बुलंदियों तक पहुंचाया उन्हें कैसे भूल गए। इन्ही में से प्रमुख नाम है गंगोलीहाट पिथौरागढ के पठक्यूड़ा निवासी कैलाश पाठक का, जिन्होंने 1994 के दौर से लगातार राज्य आंदोलन में अग्रणीय भूमिका निभाई। यही नहीं उन्होंने आंदोलन को धार देने में जुबानी और कलम से दोहरी भूमिका अदा की। राज्य आन्दोलनकारियों का चिह्नीकरण करने वाले उनका नाम कैसे भूल गए। इसकी तत्काल जांच होनी चाहिए। तमाम साक्ष्य,प्रमाण देने के बावजूद कैलाश पाठक को प्रमुख राज्य आन्दोलनकारी का दर्जा न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि एक आंदोलनकारी का अपमान करना है। उन्होंने स्थानीय भाजपा जिलाध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री तक सप्रमाण पत्र भेजें हैं लेकिन परिणाम अभी भी ठंडे बस्ते में है। गंगावली,गंगोलीहाट क्षेत्र से आंदोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख आंदोलनकारी कैलाश पाठक को तत्काल प्रमुख राज्य आंदोलनकारी का दर्जा दिया जाना चाहिए। इस राज्य को बनाने के लिए जिन्होंने अपना घर, परिवार सब कुछ छोड़ दिया। भूखे, प्यासे रहकर दिनरात आंदोलन में शिरकत की और ईमानदारी से आंदोलन को मंजिल तक पहुंचाकर दम लिया, उन आंदोलनकारियों को कैैसे भुला दिया गया है। उनका नाम लेना तो दूर उन्हें सरकार ने आज तक आंदोलनकारी नहीं माना और उनका चिह्नीकरण तक नहीं किया गया है। जबकि उन्होंने काशी सिंह ऐरी, पी सी तिवारी, राम सिंह कैड़ा, हुकुम सिंह कुंवर, मोहन पाठक जैसे अनेकों आन्दोलनकारियों की भांति अपने क्षेत्र से सक्रिय भूमिका निभाई।
गौरतलब है कि पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग से पहले उस दौर में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का विरोध शुरू हुआ था। जो बाद में राज्य आंदोलन में तब्दील हो गया। सही वक्त का लाभ उठाते हुए समूचे उत्तराखंड के लोग एकजुट होकर
सड़कों पर उतर आए थे। राज्य आंदोलन में छात्रों, महिलाओं और कर्मचारियों की प्रमुख भूमिका रही। महिलाओं, छात्रों और कर्मचारियों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अलग राज्य को तवज्जो दी। यह आंदोलन किसी दल विशेष का न होकर आम आदमी का आंदोलन हो गया था। अलग राज्य की मांग लेकर गठित उत्तराखंड क्रांति दल ने तो आंदोलन में शिरकत की लेकिन कांग्रेस और भाजपा से जुडे लोग शुरू में आंदोलन से दूरी बनाते रहे। यहां तक कि कई प्रमुख राजनेताओं स्व.एनडी तिवारी और हरीश रावत ने अलग राज्य का विरोध किया था। एनडी तिवारी ने तो यहां तक कहा कि अलग राज्य उनकी लाश पर बनेगा और जब राज्य बना तो अलग राज्य के निर्वाचित सरकार के पहले मुख्यमंत्री भी वही बने। कांग्रेस ने उन्हें ही प्रदेश की बागडोर सौंपी थी।
आंदोलन की तेज होती धार और राजनीति में अपनी साख बचाने के लिए गली, मोहल्लों, ब्लॉक और तहसीलों में कांग्रेस, भाजपा से जुड़े चुनिंदा लोग जो अलग राज्य के पक्षधर थे, दबी जुबान
आंदोलन का समर्थन करने लगे लेकिन दो अक्तूबर 1994 को दिल्ली के जंतर-मंतर में हुई। ऐतिहासिक रैली में भी भाजपा, कांग्रेस ने दूरी बनाए रखी। हालांकि दोनों दलों के प्रमुख नेता दिल्ली पहुंचे थे लेकिन आंदोलन की कमान छात्रों ने किसी भी दल के हाथ में नही जाने दी। जिस वजह से सत्तासीनों ने दिल्ली रैली को नेतृत्व विहीन करार देते हुए आंदोलनकारियों पर लाठी, डंडे और आंसू गैस के गोले बरसाए। कई आंदोलनकारियों को दिल्ली की जेलों में ठूंसा गया। कइयों ने भागकर जान बचाई। दो अक्तूबर की रात में मुजफ्फरनगर में तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार ने आंदोलनकारियों पर बर्बरता की। उत्तरप्रदेश की पुलिस ने दिल्ली रैली में शामिल होने जा रहीं माताओं, बहिनों से बलात्कार किया। आंदोलनकारियों का इस कदर दमन हुआ कि उन पर गोली चलाई गई। जिसमें कई आंदोलनकारी शहीद हो गए। इससे पहले एक अक्तूबर को खटीमा और मसूरी में शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के लिए आंदोलनकारियों पर गोली बरसाई गई। यहां भी कई लोग हताहत हुए। दिल्ली में हुई बर्बरता से आंदोलनकारी और उग्र हो गए। प्रदेश के सभी जिलों, तहसीलों और ब्लॉकों में आंदोलन तेज हो गया। कई छात्र-छात्राओं, युवा आंदोलनकारियों को जेलों में ठूंसा गया। कइयों पर मुकदमे थोपे गए। इन सभी स्थानों पर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवा
आंदोलनकारियों ने बागडोर संभालते हुए अपने साथियों की रिहाई, उनके मुकदमे लड़ने में अहम भूमिका निभाई।
प्रमुख आंदोलनकारियों, नेतृत्वकारी शक्तियों को आज तक न तो आंदोलनकारी माना गया है और न ही उनका चिह्नीकरण किया गया है। ऐसे वंचित राज्य आंदोलनकारी आज तक सरकारों से चिह्नीकरण की गुहार लगा रहे हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है।वअलग राज्य गठन के बाद आंदोलन से दूरी बनाने वाले कांग्रेस और भाजपा से जुड़े कई लोगों को राज्य आंदोलनकारी घोषित किया गया लेकिन प्रमुख राज्य आंदोलनकारियों को आज तक उनका हक नहीं दिया गया है। राज्य आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राज्य आंदोलनकारियों के साथ आंदोलन में शामिल रहे कई नेता आज सत्ता और विपक्ष में बैठे हैं। वह व्यक्तिगत रूप से चिह्नीकरण से वंचित राज्य आंदोलनकारियों को अपना आंदोलन का साथी बताते हैं और उन्हें हक दिए जाने की बात कबूल करते हैं लेकिन सदन में प्रमुखता से वंचित इससे पहले एक अक्तूबर को खटीमा और मसूरी में शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के लिए आंदोलनकारियों पर गोली बरसाई गई। यहां भी कई लोग हताहत हुए। दिल्ली में हुई बर्बरता से आंदोलनकारी और उग्र हो गए। प्रदेश के सभी जिलों, तहसीलों और ब्लॉकों में आंदोलन तेज हो गया। कई छात्र-छात्राओं, युवा आंदोलनकारियों को जेलों में ठूंसा गया। कइयों पर मुकदमे थोपे गए। इन सभी स्थानों पर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवा आंदोलनकारियों ने बागडोर संभालते हुए अपने साथियों की रिहाई, उनके मुकदमे लड़ने में अहम भूमिका निभाई। प्रमुख आंदोलनकारियों, नेतृत्वकारी शक्तियों को आज तक न तो आंदोलनकारी माना गया है और न ही उनका चिह्नीकरण किया गया है। ऐसे वंचित राज्य आंदोलनकारी आज तक सरकारों से चिह्नीकरण की गुहार लगा रहे हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है।
- हुकुम सिंह कुंवर, प्रमुख राज्य आंदोलनकारी।
वंचित राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के लिए सरकार पर दबाब बना रखा है। की बार मुख्यमंत्री से वंचित राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण की मांग कर चुके हैं। मुख्यमंत्री से बात भी हुई है। उन्होंने आश्वासन दिया है। नौ नवंबर को वंचित राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण की घोषणा के लिए मुख्यमंत्री से वार्ता की जाएगी।
- मोहन पाठक, प्रमुख राज्य आंदोलनकारी।
- (शेष अगले सप्ताह…)