कुमाऊँ
कृषि कानूनों को वापस लेना किसानों के साथ आम आदमी की भी ऐतिहासिक जीत:तिवारी
रानीखेत। उत्तराखंड विधि आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष एडवोकेट दिनेश तिवारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विवादित तीनों कृषि क़ानून को वापस लेने की घोषणा को संयुक्त किसान मोर्चा की ऐतिहासिक जीत बताया है और कहा है कि यह प्रधानमंत्री का देर से लिया गया लेकिन सही फैसला है। उन्होंने कहा कि तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध को केवल किसानों का मामला मानने का नज़रिया सही नहीं है। इन विवादित क़ानूनों के रहते आने वाले वक़्त में आम आदमी की परेशानियाँ भी बहुत बढ़ने वाली थीं। इस क़ानून के ज़रिए सरकार निजी क्षेत्र को बिना किसी क़ानूनी प्रतिबंधों और पंजीकरण के कृषि उपज के क्रय–विक्रय की खुली छूट दे रही थी। इस क़ानून से सरकार कृषि उपज की अधिकांश ख़रीददारी का अधिकार निजी क्षेत्र को दे रही थी और ख़ुद भंडारण और वितरण की अपनी सार्वजनिक ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही थी। करोना काल जैसी विकट परिस्थितियों ने हमें यह सबक़ सिखाया है कि अनाज का भंडारण और वितरण का अधिकार हर सूरत में सरकार के पास रहना चाहिए। अगर यह अधिकार करोना महामारी के दौर में निजी क्षेत्र के पास होता तो ज़रूरतमंद लोगों तक राशन पहुँचाने के लिए सरकार को खाद्य सामग्री निजी कंपनियों से उनकी शर्तों पर ख़रीदनी पड़ती ।
पूर्व उपाध्यक्ष ने कहा कि अतीत के अनेक दुर्भिक्षों का भी भारत कुशलता से इसलिए सामना कर पाया क्योंकि एफसीआइ के गोदाम व सार्वजनिक वितरण प्रणाली सरकार के नियंत्रण में थी। उन्होंने कहा कि यह क़ानून विवाद की स्थिति में किसानों को सिविल कोर्ट जाने से भी रोक रहा था जो पूरी तरह ग़लत और आपत्तिजनक है। इन विवादित क़ानूनों के चलते रोज़गार के बचे हुए अवसर भी समाप्त हो जाते क्योंकि कॉंट्रैक्टफ़ार्मिंग के ज़रिए खेती में प्रवेश करने वाली बड़ी कम्पनियाँ बड़ी मशीनों से खेती का काम करतीं और मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखातीं ।
उन्होंने कहा कि तीनों कृषि क़ानूनों से न तो किसानों को और न ही आम आदमी को कोई लाभ मिलने जा रहा था। महँगाई बढ़ाने की खुली छूट देने वाले इन क़ानूनों के रहते आम आदमीं की आर्थिक हालत और अधिक ख़राब हो जाती । आज यह आज़ाद भारत में दूसरी बार ऐसा हो रहा है जब केंद्र सरकार अपने द्वारा बनाए क़ानून को वापस लेने जा रही है । उन्होंने कहा कि 1973 में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने द्वारा किए गए अनाज व्यापार के राष्ट्रीयकरण के बहुत बड़े फ़ैसले को भारी विरोध के कारण वापस ले लिया था।