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उत्तराखण्ड

यहां बदलने लगे सियासी समीकरण

लालकुआं। यहां से कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन इतना बड़ा चेहरा होने के बावजूद बदलते सियासी समीकरणों ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को बगावत के बवंडर में फंसा दिया है। नाम वापसी के दिन तक अगर डैमेज कंट्रोल नहीं हुआ तो दोनों राजनीतिक दलों के सामने मुसीबतों का पहाड़ होगा। क्योंकि अब तक ब्राह्मण बहुल्य इस सीट में जातीय समीकरण भी बदल गए हैं अब लालकुआं विधानसभा सीट ठाकुर प्रत्याशियों के हाथ में है।वर्ष 2012 में धारी विधानसभा से परिसीमन के बाद अलग हुई लालकुआं विधानसभा में अब तक कांग्रेस का विधायक नहीं बन पाया है। 2012 में निर्दलीय के रूप में हरीश चंद्र दुर्गापाल चुनाव जीते और 2017 में बीजेपी के नवीन दुम्का चुनाव जीते।

अब 48 घंटे पहले उलट-पुलट हुए सियासी समीकरणों के बीच रामनगर से हरीश रावत को यहां शिफ्ट किया गया, लेकिन चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष होने के बावजूद हरीश रावत के लालकुआं विधानसभा में आने के बाद भी कांग्रेस मजबूत स्थिति में नहीं पहुंच पाई है, क्योंकि खुद के घर में ही बगावत के बीज बो दिए गए हैं, पहले लालकुआं विधानसभा से कांग्रेस का टिकट संध्या डालाकोटी को दिया गया टिकट की खुशी में प्रचार में निकली संध्या को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि उनका टिकट कट गया।भारी मान मनोबल के बाद भी संध्या डालाकोटी ने कल नामांकन के आखिरी दिन अपना पर्चा भरा और उनके समर्थकों ने हरीश रावत गो बैक के नारे लगाए। ठीक इसी प्रकार के हालात भाजपा में भी देखे गए जहां विधायक नवीन दुम्का ने समर्थकों को स्वतंत्र छोड़ दिया तो वही हेमंत द्विवेदी भी टिकट बंटवारे से नाराज दिखाई दिए, यहां तक कि लालकुआं शहर के दो बार के चेयरमैन रहे पवन चौहान पार्टी से बगावत करते हुए इस्तीफा देकर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए हैं।

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लालकुआं विधानसभा जितनी वीआईपी बनी उतना ही संकट दोनों राजनीतिक दलों के लिए भी हो गया है। 31 जनवरी को नाम वापसी का आखिरी दिन है। अगर उससे पहले भाजपा और कांग्रेस ने बगावत के बवंडर को शांत नहीं किया तो यह बगावत का बवंडर आगे चलकर उनके लिए किसी तूफान से कम नहीं होगा।

राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है ब्राह्मण बहुल्य इस सीट में ठाकुर प्रत्याशियों को टिकट दिए जाने के बाद भी कई समीकरण बदल गए हैं। उधर अब तक अपनी ही पार्टी में एक दूसरे के घोर प्रतिद्वंद्वी हरीश चंद्र दुर्गापाल और हरेंद्र बोरा के कोलेब्रेशन से उनके कट्टर समर्थकों को भी झटका लगा है, क्योंकि दोनों का वोट बैंक एक दूसरे के खिलाफ रहा है ऐसे में नेताओं के दिल तो मिल गए लेकिन समर्थकों के जख्म अभी भरे नहीं हैं।

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