कुमाऊँ
बहत्तर वर्षीय कलाकार लछी का जज़्बा बरकरार
कोई पढ़ लिखकर नाम कमाते हैं और कोई बिना पढ़े, अनपढ़ रहकर भी समाज का आइना बन जाते हैं। बस हौसला होना चाहिए इंसान बुलन्दियों तक पहुंच ही जाता है। ऐसी ही कहानी ग्राम ल्वाड़ हरिशताल, नैनीताल के रहने वाले बहत्तर वर्षीय लोक कलाकार लछीराम की है। जिस उम्र में अकसर लोग आराम करने लगते हैं उस उम्र में लछीराम मशकबीन से लेकर डोल-नगाड़े, और हुड़के की थाप में अच्छे खासे कलाकारों को मात देते हैं।
11 वर्ष की उम्र से कुमाऊंनी लोक गीतों में थिरकने वाले लछीराम ने जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं। उत्तर प्रदेश के समय से ही वह सूचना एवं लोक संपर्क विभाग के सांस्कृतिक दल से जुड़े हैं। आज भी सूचना विभाग के सांस्कृतिक दल में समय-समय पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। लछीराम बताते हैं उन्होंने बचपन से ही अत्यधिक गरीबी से दिन बिताये हैं। जब वह इग्यार वर्ष के थे पिता का साया छिन गया, मां ने उन्हें पाला-पोशा और शादी की बाद में एक लड़की हुई। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था, न माँ रही न पत्नी और न ही बेटी। लछी आज भी अकेले हैं। बावजूद इसके उनका हौसला कहीं से कहीं तक कम नहीं है। पहले 15 साल तक उन्होंने अपने गुरु कलाकार ताराराम के साथ कुमाऊनी लोक गीतों में नारी के वेश भूषा में खूब नाच किया। बाद में मसकबीन, डोल दमुवा,हुड़का आदि बजाने शुरू किए। यही से उन्हें ख्याति मिलनी शुरू हुई। लछी शरीर से बूढ़े जरूर हैं लेकिन उनकी कला का आज भी हर कोई मुरीद है। हुड़का और ढोल की जागर लगाना भी लछी बखूबी जानते हैं। शिल्पकला के भी वह धनी हैं। लकड़ी की सभी प्रकार की कारीगरी, पत्थरों की चिनाई आदि में वह माहिर हैं।
वर्ष 1995 से कुमाऊंनी विकास सास्कृतिक संस्था का पंजीकरण कराने के बाद उनके लिए परिवार, समाज सबकुछ इसी में समाया हुआ है। उनके भीतर का दर्द बोलते ही आंसू बनकर निकल आता है। अनपढ़ होने के बाद भी लछी की कलाकारी का जवाब नहीं, कुमाऊंनी कवि सम्मेलन, लोक गीत भी उनको बनाना आता है। वह बताते हैं लिखने के नामपर शून्य हैं बड़ी मुश्किल से नाम और हस्ताक्षर करना सीखा। अपनी कला से वह समाज का आइना बने हुए हैं।