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कुमाऊँ

“हरेला आदमी का प्रकृति के साथ एक मेला, सक्षम ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने, चला अकेला”

आज पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण सबंधित समस्याओं से जूझ रहा है. प्रकृति के संतुलन को बनाए रखना मानव के जीवन को सुखी, समृद्ध व संतुलित बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण का विशेष महत्व है. धर्म शास्त्रों के अनुसार वृक्षारोपण से पुण्य प्राप्त होता है. वैज्ञानिको ने घटते वृक्षों का प्रकृति व समाज पर प्रभाव विषय पर गहन अध्ययन करके उसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को सचेत किया है. वृक्षों से हमें प्राणवायु ऑक्सीजन प्राप्त होता है. वैज्ञानिको के अनुसार संतुलित पर्यावरण के लिए एक तिहाई हिस्से पर वनों का होना अति आवश्यक है किंतु वर्तमान में वनों के अत्यधिक कटान के कारण यह अनुपात नहीं रहा है. इसलिए वृक्षारोपण ही इसका एकमात्र उपाय है. वनों से हमें अनेक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं. वनों से हमें अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां मिलती हैं जिनका प्रयोग औषधियां बनाने में किया जाता है. वर्तमान समय में अनेक आदिम जातियां भोजन (कंद-मूल फल आदि) के लिए वनों पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर रहती हैं. वनों का प्रयोग कागज, दियासलाई, लाख, प्लाइवुड, खेल का सामान, फर्नीचर आदि बनाने में किया जाता है. भारत में लगभग 35 लाख लोग वनों पर आधारित उद्योगों में कार्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं. वन सरकारी आय में वृद्धि करने का प्रमुख स्रोत हैं. भारत में प्रतिवर्ष लगभग 100 करोड़ का प्रत्यक्ष लाभ वनों के उत्पादों का निर्यात करके होता है. इसके अतिरिक्त वनों से हमें अनेक अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त होते हैं. वन मृदा अपरदन को रोकने में सहायक हैं, मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करते हैं, वन पर्यावरण को स्थिरता प्रदान करने में सहायक होते हैं।


प्रत्येक परिवार द्वारा हरेला के दिन अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण (फलदार व कृषि उपयोगी पौध) की परंपरा है. मान्यता है कि हरेला के दिन टहनी मात्र रोपण से उससे पौध पनप जाता है. इस प्रकार हरेला पर्व का सीधा संबंध प्रकृति संरक्षण व संवर्धन से है।

जनमानस से गहरा रिस्ता है ————–हरेला.

हमारे कुमाऊनी लोक मानस की इन वादियो में लोक में से एक सबसे पुराना त्यौहार है हरयाव, अर्थात हरेला . जेठ की तपती दोपहरी वातावरण में सावन के आते ही हरियाली आ जाती है. बारिश में भीगी जमीन में अंकुरित धान , मक्का , मादिरा मदुवा मानव की मशक्कत का परिणाम है.इसीलिए हरेले के रूप में इन फसलों के उपज का है यह त्यौहार हरेला। हरेले के तिनडो से बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चो , कनिस्ठो को पुजा जाता है.और आशीष दी जाती है –‘ लाख हरयवा लाख चेतत्यू, लाख पंचमी जी रय्ये, जाग रय्ये य दिन बार भटिने रय्ये’ . सावन महीने से 9 या 10 दिन पहले आसाढ़ मास में पाँच य सात अनाज डलिया में रखकर उगाये जाते है.कहते है हरेला दिन – रात तेज से बड़ता है. अच्छे हरेले से अच्छे फसल की भविष्यवाणी की जाती है.लोकमानस को प्रकृति से जोड़ने व इसके संरक्षण को रखने की प्रतिबद्धता भी है हरेला। खेती व कास्तकारी वाले हमारे समाज मे आज भी यह माना जाता है की इस दिन कोई भी पौधा रोपा जाए तो वह हरा भरा हर भरा रहता है. इसीलिए भीगी जमीन मे आड़ू, सेब महल, खुमानी , अनार,पदम आदि पौधो को रोपा जाता है. हरेले को लेकर इन वादियो में कई किस्से , कहानिया है। लोक गीतो मे एक कहानी आती है किसी गाँव मे एक बहू अपनी सांस से हरेले की दिन मायके जाने का अनुरोध कर रही है. सांस बहू को हुक्म देती है मायके जाने से पहले सात घोड़े लकड़िया, सात घोड़े घास और सात खेतो मे धान की रुपाई करके जाना . बहू सूरज से निवेदन करती है हे सूरज देव मुझे सूर्यास्त से पहले मायके पहुचना है मै सांस द्वारा दिये गए कम को जब तक पूराकर ईज़ा के आगन न पहुच जाओ तब तक तू मत छिपना. वो सारा काम निपटकर जैसे ही ईज़ा- बाबू के घर पहुचती है सूर्य रुका रहता है। लेकिन दहलीज़ पर पहुचती ही उस बहू की मृत्य हो जाती है। इस मर्म स्पर्शी कहानी को लोक गीतो के माध्यम से भी गाया जाता है। ‘सात गठरी लकड़ी क ब्वारी,सात घड़ा पनि क धारि जाए, तब जाली मैत ले ब्वारी’ ……………’

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यह एक बहुत पुराना गाना है। हमे अपनी इस धाती, रीति –रिवाज, परंपरा की बनाए रहते हुए नई पीड़ी के साथ इसको सांझा करना चाहिए.
हरेला के महत्व को समझते हुए उत्तराखंड सरकार ने प्रतिवर्ष 5 जुलाई को हरियाली दिवस मनाने का संकल्प लिया है जिसका मुख्य उद्देश्य प्रकृति संरक्षण हेतु आम जनता के मध्य जन चेतना व जन जागरूकता फैलाना है. हरेला का त्यौहार न केवल अच्छी फसल उत्पादन के लिए मनाया जाता है बल्कि आने वाली ऋतुओ के प्रतीक के रूप में भी मनाया जाता है. हरेला वर्ष में तीन बार मनाया जाता हैं।
चैत मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है तथा नौवें दिन (नवमी) को काटा जाता है. यह मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु आने का संकेत देता है. इसी तरह आश्विन माह में नवरात्रि के दिन हरेला बोया जाता है तथा दशहरे के दिन काटा जाता है. यह शीत ऋतु आने का प्रतीक है. वर्ष में तीसरी हरेला जो कि तीनों हरेला में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, श्रावण माह से 9 दिन पहले बोया जाता है तथा 10 दिन बाद काटा जाता है. यह वर्षा ऋतु आने का संकेत देता है.
पहाड़ियों का साल का पहला त्यौहार है हरेला.

वैज्ञानिकों के अनुसार हरेला के पौधो से बीजों के उत्पादन क्षमता का भी पता लगाया जा सकता है. इस प्रकार उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ लड़ने का संदेश देता है. हरेला हमें अवसर देता है कि हम प्रकृति को करीब से जानें. जिस प्रकृति ने हमें इतना सब कुछ दिया है वृक्षारोपण द्वारा उस प्रकृति का कर्ज उतारने की एक छोटी सी कोशिश किया जाए तथा संकल्प लें कि प्रतिवर्ष कम से कम एक पौध लगाकर पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान अवश्य देंगे. हमारी आज के प्रयास हमारी आने वाली कल की पीढ़ियों के लिए वरदान साबित होगा.

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प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ पिथोरागढ़
उत्तराखंड
( लेखक साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक सरोकारों से जुड़े हैं और समाज को इनके प्रति जागरूक कर रहे हैं)

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