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कुमाऊँ

कुंदन को सच्ची श्रद्धांजलि तभी,पहले उसके परिजनों को मदद मिले

हल्द्वानी । कुंदन राणा नहीं रहे… आज से करीब पांच दिन पहले यह संदेश सोशल मीडिया पर देखकर मीडिया जगत से जुड़े उन्हें जानने वाले तमाम लोगों ने दुख व हैरानी व्यक्त की थी। सभी ने उनके शोक संतप्त परिवार को शक्ति देने की ईश्वर से कामना भी की, लेकिन कहीं से भी उनके परिवार के भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं दिखाई पड़ी। वजह यह रही होगी कि चिंता व्यक्त करने वाले कुंदन राणा के परिवार के हालात से वाकिफ नहीं रहे होंगे।

अपनी 38—40 वर्ष की उम्र में यहां के तमाम स्थानीय समाचार पत्रों में काम करने वाले कुंदन अपने पीछे दो बेटियां और पत्नी को छोड़ गए हैं। उन्होंने जिन अखबारों में काम किया वहां से उन्हें आठ से दस हजार का वेतन मिलता रहा। अब उनके परिवार का भविष्य क्या होगा बूढ़े पिता कब तक परिवार का सहारा बनेंगे। यह जो दृश्य आपके सामने आ खड़ा हुआ है वह एक कुंदन का नहीं बल्कि मीडिया जगत में काम करने वाले दर्जनों ‘कुंदनों’ के परिवारों का है जो डेस्क पर अपनी उम्र खपा देते हैं। क्या फर्क पढ़ता है उम्र से…ज्यादा उम्र होगी तो आखों पर चश्मा चढ़ा होगा, बालों पर सफेदी आगई होगी और चेहरे पर चिंता और घरेलू समस्याओं की लकीरें उभर गई होगी, पारीवारिक तस्वीर से पिता—माता का साया हट जाएगा लेकिन परिवार की मजबूरियां, चिंताएं और चुनौतियां हर तस्वीर से झांक रही होंगी।
यह तस्वीरें दु:खद नहीं. दु:खद तो यह है कि जिस काम को करके कुंदन जैसे लोग सुनहरे भविष्य के अधपके सपने संजोते हैं उसी वर्ग के लोग उनकी दिमागी क्षमताओं का तो खूब फायदा उठाते हैं लेकिन उन्हें मौका पाते ही अपने से दूर छिटक देते हैं। ये वे ‘कुंदन’ है जिनका काम पत्रकारों द्वारा भेजी गई पकी अधपकी खबरों को आकार देना होता है। अखबारों की डेस्क पर बैठे इन लोगों का काम तब शुरू होता है जब हम पत्रकार शाम को खबरों के जंजाल से मुक्त होकर किसी ने किसी के साथ दो—दो रसायनिक अभिक्रियाओं में डूब रहे होते हैं। ये वो कुंदन हैं जो पन्ना छूटने के अंतिम क्षणों में भी कंप्यूटर स्क्रीन पर उसे जूम इन करके खबरों में जा रही गलतियों को पकड़ने का अपना शगल नहीं छोड़ते ताकि सुबह हम पत्रकारों को मिलें लोगों की वाह वाही और हो शाम का जुगाड़ या बढ़िया से रेस्टोरेंट में एक कप चाय का आफर।
हम जो फील्ड से जुटाते हैं उसे ये कुंदन ही सजा संवार कर नयन भेदी बनाते हैं। डेस्क पर उप संपादक और पेज डिजायनर नाम से पहचाने जाने वाले ये ‘कुंदन’ रीढ़ है प्रिंट मीडिया की, जरा सोचिए ये कुंदन काम पर न आएं तो क्या अखबार छप कर जनता के हाथों में आ पाएगा। अखबारों की यह रीढ़ भी महामारी से झुक गई है। 24 —24 पन्नों के अखबार 12 या 14 पन्नों पर आ आ ठहरे हैं। वे भी अखबारों की सुर्खियां बने बिना चिकित्सालयों या अपने घरों में दम तोड़ रहे हैं। लेकिन इतना सबकुछ होने पर भी उनके परिवारों के लिए सरकार की तरफ से कोई मदद की उम्मीद नहीं है। पत्रकारों के लिए बने संगठनों से काम की व्यस्तताओं के चलते वे जुड़े नहीं और हम पत्रकारों ने उन्हें कभी अपने बीच का माना नहीं। मीडिया पर्सन की दोयम जिंदगी जीते हुए आज अचानक ‘कुंदन’ दुनिया छोड़कर जाते हैं तो कोई उनके परिवारों की सुध लेने नहीं आता।
पत्रकारों से किसी भी लिहाज से कमतर नहीं लेकिन पत्रकार नहीं होने का दंश उन्हें मौत के बाद भी सालता रहेगा। उत्तराखंड में कितने ही पत्रकार संगठन चल रहे हैं लेकिन एक भी मीडिया संगठन नहीं है। जिसमें पत्रकारों के अलावा ‘कुंदनों’ के दुख दर्द की भी परवाह की जा सके। वैसे पत्रकार संगठन कौन से पत्रकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। पत्रकारों के वैक्सीन लगाने के लिए प्रशासन ने अलग से काउंटर क्या लगाया हम लड़ने लगे श्रेय लेने के लिए। जबकि 18 वर्ष से उपर के हर नागरिक को कोरोना का टीका तो सरकार लगाएगी ही। इसमें नई बात क्या है और इतनी जान पहचान, मान प्रतिष्ठा पाने वाले हम पत्रकार एक काउंटर को अपनी उपलब्धि समझ बैठे।
उपलब्धि तो तब होती जब हम पूरे मीडिया जगत की बात सरकार से मनवाते। कोरोना काल में महामारी से जान गंवाने वाले पत्रकारों के अलावा इन ‘कुंदनों’ के परिवारों की मदद के लिए मंत्रियों को मजबूर करते। लेकिन यहां भी हम पत्रकार और गैर पत्रकार में बंट कर रहे गए। स्मरण रहे यह महामारी है इसकी नजर में सब एक समान हैं। आज दुख कुंदन के परिवार पर है तो कल हम में से किसी के परिवार पर होगा। ठीक उतना ही न कम न ज्यादा। इसलिए हम पत्रकारों को अपनी श्रेष्ठता का दंभ त्याग कर अपने गिरेबान में झांकना होगा, नेताओं अफसरों से सवाल बहुत हुए एक बार खुद से सवाल पूछ कर देखिए…मीडिया की इस भीड़ में हम सब ‘कुंदन’ नहीं है क्या…
खैर दिवंगत तमाम ‘कुंदनों’ और बिस्तर पर स्वास्थ्य लाभ की परिकल्पना के साथ जीवन और मृत्यु की झीनी सी चादर के आरपार झांक रहे उन तमाम ‘कुंदनों’ से क्षमा प्रार्थना कि यदि आप ‘पत्रकार’ होते तो आपके लिए मेरे साथी ‘मंत्रियों’ से मिलते और आपके परिवारों की सहायता के लिए दवाब बनाते। मंत्री न सुनते तो अखबारों में न सही सोशल मीडिया पर उनकी ईंट से ईंट बजाते…लेकिन इसके लिए आपका पत्रकार होना अनिवार्य है।

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साभार-तेजपाल नेगी जी, आपने कम से कम जो पीड़ा व्यक्त की उसे मैं भी अपने पोर्टल के माध्यम से आगे फॉरवर्ड कर रहा हूँ ताकि आगे कुंदन की भांति अखबार में काम कर रहे साथियों को भी स्मरण रहे। कुंदन के जाने से मै भी अत्यधिक व्यथित हूं, उसकी याद हर पल सता रही है। अपने कार्य के प्रति सजग, ईमानदार युवक इतनी जल्दी ऐसे छोड़ देगा यह कभी नहीं सोचा था, अंतिम मुलाकात 21 अप्रैल को हुई थी, उसने कहा था साले की शादी है मुझे गरुड़ जाना होगा कुछ एडवांस कर देना, बड़ा दुःख हुआ उसका फोन नहीं आया अंततः खबर मिली वह नहीं रहे, मुझे उसकी असामयिक मौत का बेहद दुःख है। हाल ही के दिनों उत्तर उजाला में काम कर रहा था, मुझे नहीं मालूम उसने पहली वेतन भी ली या नहीं, इस दुःख की घड़ी में हर किसी को कुंदन के बच्चों की मदद के लिए आगे आना चाहिए।
मैं वर्तमान में अस्वस्थ हूं, ठीक होते ही उसके परिजनों की मदद के लिए आगे आऊंगा। उत्तर उजाला के साथी भी सहयोग के लिए तैयार है। आप सभी का साथ चाहिए। सरकार से उसके परिवार को मदद, नौकरी दिलाने की पैरवी करनी होगी।

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