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उत्तराखण्ड

महंगी शिक्षा,सस्ती शिक्षा

ये कहने,बोलने और लिखने में अच्छा नहीं लग रहा है की ये महंगी शिक्षा है, ये सस्ती शिक्षा है।
ऐसा लगता है जैसे हम किसी वस्तु, आइटम के मोल भाव की बात कर रहे हो। शिक्षा जैसे पवित्र चीज के लिए ये शब्द पीड़ा देते है। लेकिन इस पीड़ा या दर्द का क्या, ये तो अरसे से ले रहे है और दे रहे है।कौन इसकी परवाह करने वाला हैं कुछ चीजों को मोल भाव, कीमतों से नही देखना चाहिए और न ही आंकना चाहिए। शिक्षा बेशुकीमती होती है और है। इतिहास,सभ्यताएं,संस्कृति सदा से इसकी गवाह रही है। इन सब बातो से एक बात साफ हो जाती है की महंगी, सस्ती शिक्षा की जगह एक समान शिक्षा होनी चाहिए। अतीत के पन्नो को उलेटिए ये सब दिख जायेगा। इसीलिए भारत विश्व में गुरु की पदवी से नवाजा गया। और हमारी शिक्षा दुनियाभर के देशों के लिए आकर्षण व प्रेरणादायक रही। अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश में सभी को एक जैसे शिक्षा दे जाती है। नागरिकों के हैसियत के अनुसार शिक्षा की ऐसी तैसी नही की जाती है। हैसियत से शिक्षा नही खरीदी जाता हैं। बल्कि शिक्षा से हैसियत बनायी जाती है। जब शिक्षा एक जैसी होगी तो स्वाभाविक रूप से राष्ट्रों के अपने नागरिकों की सोच में भी देश के प्रति अधिकतम समरूपता होगी। इसका सीधा फायदा देश के उन्नति,समाज का उत्थान और देशभक्ति ,देश के प्रति त्याग,सेवा में वृद्धि से हाेगीं. भारत क्यू नही शिक्षा में समानता ला पा रहा है। इससे हम एक भारत श्रेष्ठ भारत की थीम को सरलता से जीवंत कर सकते है। ये अच्छा समय है जब सरकार नई शिक्षा नीति 2020 लागू करने जा रही है। 36सालों के उपरांत शिक्षा को नए ढांचे में ढाला जा रहा हैं.अभिनव प्रयोग किए जा रहे हैं। या यूं कहे आज से कल के भारत का की तस्वीर खींची जा रही हैं प्रारंभ से ही महंगे,सस्ते के बोझ से शिक्षा को मुक्त किया जाना चाहिए। ये गारंटी नहीं की भारी भरकम स्टार फैसिलिटीज देने वाले गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ही दे रहे हो। इसको विपरीत अगर दे भी रहे हो तो क्या वे भारत की निर्माण की नीव बना रहे है या इंडिया के संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग कर रहे हैं। इसे देखने, समझने,परखने और सही निर्णय का वक्त हैं एक तरह से देख जाय तो इन स्कूलों,विद्यालयों, शैक्षणिक प्रतिष्ठानों, विश्विद्यालयों पर अन्य की अपेक्षा एक जिम्मेदार नागरिक बनाने की जिम्मेदारी ज्यादा होनी चाहिए। क्योंकि एजेंसियां भले ही वो सरकारी हो अथवा गैर सरकारी कर तो संसाधनों का उपयोग ज्यादा ही रही है। इस गणित से उपर उठे भी गए तो मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग कहा कर पा रहे हैं। जनता अधिकांश चलो देखो और हवा कहा चल रही है की ओर जाती है। आखिर ये हवा कोन बनाता है?.
की अमुक महंगा स्कूल अच्छा और अमुक सस्ता । एक अच्छा और दूसरा अच्छा नहीं है। एक बारगी देखने में तो अच्छा लगता है की सभी महंगे और सस्ते स्कूल दोनो शिक्षा देने को बेआतुर हैं। पाठ्यक्रम भले ही यह पर थोड़ा बहुत समान हो भी, लेकिन दूसरे क्रम समान नही हैं। और सही बात हो भी नहीं सकते।
एक आम भारत को बनाता हैं और दूजा भारत के भीतर इंडिया।
सरकार अपने प्रयासों से अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक शिक्षा को लेकर जा रही है।शिक्षक ग्राउंड जीरो पर काम कर रहे हैं। लेकिन शिक्षा मुद्रा का फलन बन चुकी है। इसे बचाना चाहिए। मुद्राएं सूचनाएं इक्ट्ठा करने में मददगार हो सकती है, ज्ञान, चिंतन ,खोज में नही। वो तो व्यक्ति में इनकैलकुलेट करनी पड़ती हैं। जो सिर्फ और सिर्फ एक समान शिक्षा से ही संभव होता दिख रहा हैं।
अगर इस सही समय पर सही फैसला ले लिया जाय तो आने वाला कल गुजरे कल पर अपनी पीठ थपथपा सकता हैं। हमारा खोया गौरव एक समान शिक्षा से कई सामाजिक,सांस्कृतिक,ऐतिहासिक, आध्यात्मिक व वैज्ञानिक को लौटा सकता हैं.

प्रेम प्रकाश उपाध्याय “नेचुरल”
उत्तराखंड

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( लेखक प्रतिष्ठित विद्यालयों एवं विद्यालय शिक्षा से जुड़े है)

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