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ऐतिहासिक परम्परा: देवी को खुश करने के लिए यहां आज होगा युद्ध

रक्षाबंधन के दिन बाराही धाम में खेला जाता है ,विश्व प्रसिद्ध युद्ध पहले पत्थरों से लेकिन अब फलों से होता है

देवीधुरा /चम्पावत। आज हम आपको एक ऐसे ऐतिहासिक युद्ध के बारे में बताने जा रहे हैं। जो सदियों से चली आ रही परम्परा को निभाते आ रहा है। उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित देवीधुरा के माँ बाराही मंदिर प्रागण में हर साल रक्षाबंधन को ऐतिहासिक युद्ध आज भी होता है। अटूट आस्था व श्रद्धा का प्रतीक देवीधुरा का आसाड़ी कौतिक मेला आज भी धूमधाम से मनाया जाता है।पवित्र पहाड़ों की गोद में स्थित माता बाराही मंदिर का अपना विशेष चमत्कारिक महत्व होने से यह क्षेत्र विशेष श्रद्धा व भक्ति का केन्द्र माना जाता है। श्रद्वा व भक्ति के इस केन्द्र के चारों ओर निहारने पर प्रकृति के विहंगम छटाओं के दर्शन व हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं की मनोरम वादियां दिखलाई देती हैं। देवीधुरा के विहंगम छटाओं के मध्य जगत जननी महामाया का यह मंदिर घने देवदार के वृक्षोंं के मध्य स्थित है।

इस मंदिर क्षेत्र को चाहे पौराणिक दृष्टि से देखा जाय या धार्मिक दृष्टि से, हर स्थिति में यह क्षेत्र मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है। जगत जननी बाराही देवी का यह मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटा हुआ है। हिमालय के आंचल में बसा हरे-भरे वृक्षों के मध्य निर्मित यह मंदिर भक्तजनों के लिए जगत माता की ओर से अनुपम भेंट है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्वा पूर्वक इस दरबार में अराधना के श्रद्वा पुष्प भेंट करता है। उसके रोग, शोक, दुःख, दरिद्र एवं विपदाओं का हरण हो जाता है और अतुल ऐश्वर्य एवं सुख की प्राप्ति होती है।
यहां पर श्रद्वा एवं विनयता से की गयी पूजा एवं मांगी गयी मनौती कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है। इसलिए प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन लाखों की संख्या में भक्तजन यहां पधारते हैं।
देशी-विदेशी पर्यटक इस क्षेत्र में आकर माता बाराही देवी के मंदिर के मनोरम दृश्यों से आकर्षित होकर कई-कई दिनों तक इस क्षेत्र में विचरण करते हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते है। क्योंकि यहां के पर्वतमालाओं के चारों ओर देवदार, बांज, चीड़, काफल आदि के भरपूर वृक्ष है। जगदम्बिके बाराही माता का यह मंदिर श्रावणी पूर्णिमा के लिए विशेष रूप से प्रसिद्घ है। रहस्यों व किवदन्तियों से भरा इस मंदिर क्षेत्र का निर्माण कब हुआ यह आज भी रहस्य का विषय है। मंदिर की निर्मित कलाकृति तीन शिलाखण्ड व एक अलौकिक गुफा जिसके भीतर झुककर प्रवेश किया जाता है और व्याप्त शक्ति पिण्ड महान आश्चर्य का प्रतीक है। इस मंदिर में श्रावणी पूर्णिमा के दिन बग्याल युद्ध पत्थरोंं की एक दूसरे के ऊपर मार के लिए प्रसिद्घ है। रूद्र-चण्डी को रक्पान से खुश करने हेतु यहां पर यह कौतिक होता है जिसे बग्वाल कौतिक भी कहते है।

जहां समय की बदलती धारा पर अब फलों से युद्ध किया जाता है। पुराणों के अनुसार यहां पर पहले नरबलि प्रथा का प्रचलन था। इसी प्रथा के चलते एक बार समय के चलते चक्रव्यूह के साथ एक दिन जब चमियाल खाम की एक बृद्ब महिला के इकलौते पौत्र की बारी आयी तो वंशनाश व मोह की महिमा से मंडित होकर महामाया जगदम्बिके की प्रेरणा से उसने माता की घोर तपस्या की और तपस्या से प्रसन्न होकर नर बलि के स्थान पर माता ने अन्य विकल्प खोजने को कहा तभी क्षेत्र के चारों खामों की सहमति पर देवी को प्रसन्न करने के लिए एक दूसरे पर पत्थरों की मार करके एक व्यक्ति के बराबर खून निकलाकर देवी के गणों को प्रसन्न करने का निर्णय लिया गया, तब से बग्वाल जिसे पत्थरों की मार वाला मेला भी कहते हैं,यह परम्परा चली आ रही है। जो अब फलों के युद्ध के रूप में बदल चुकी है ।एक अन्य कथा के अनुसार यह मेला पहले धुर्का देवी के दुर्गा मंदिर में होता था, जहां पर आज भी बग्वाल की परम्परा की स्मृति का मैदान है। लेकिन बाद में देवी इच्छा व शक्ति की महिमा से देवीधुरा के बाराही मंदिर में बग्वाल का आयोजन हुआ।

किवदन्तियां या कथाएं भले ही कुछ भी हों, किन्तु पुराणों के अनुसार महान आश्चर्य यह है कि बाराही माता में बृज के सामान तेज है। तेज इतना है कि आज तक कोई भी प्राणी खुली आंखों से माता को नहीं निहार पाया। जिसने भी यह दुस्साहस किया, वह अंधा हो गया। इसलिए एक तांबे के बक्से में मां बाराही को विराजमान किया गया है। इस बक्से में तीन खाने बताये जाते हैं जिसमें महाबाराही, महाकाली, महासरस्वती के रूप में जगदम्बिके विद्यमान हैं। महामाया जगत जननी का यह रहस्य आज तक कोई जान नहीं पाया है।अनेक पौराणिक एवं धार्मिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए देवीधूरा मेला सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। हिमालय क्षेत्र सदा से ही शिव शक्ति की उपासनाओं का केन्द्र रहा है किन्तु चमत्कारिक मान्यताओं के कारण देवीधूरा मेले का अपना अलग ही महत्व रहा है। देवीधूरा का शाब्दिक अर्थ देवी का वन है। भौगोलिक दृष्टि से देवदार, बांज, बुरांस, चीड़ आदि सुरम्य वनों से ढका यह मनमोहक स्थल है। देवीधूरा श्रावण पूर्णिमा के लिए उत्तर भारत में प्रसिद्घ है। दूर-दूर से पैदल दूरी तय कर श्रद्वालु भक्तों का सैलाब यहां उमड़ पड़ता है। उत्तर भारत में देवीधूरा वर्तमान युग में पाषाण युद्व बग्वाल पत्थरों की एक-दूसरे के ऊपर मार के लिए प्रसिद्व है। वैसे मध्य प्रदेश के पनधुना एवं सरगांव के लोग लोक परम्परा के अनुसार आज भी मां चण्डी को खुश करने के लिए आपस में पत्थरों को मारकर देवी को रक्तपान कराते हैं।वहां का मेला जहां गोटमार नाम से प्रसिद्ब है ,तो देवीधूरा में बग्वाल का मेला या आसाड़ी का कौतिक के नाम से विश्व प्रसिद्घ है।
रक्षाबंधन के दूसरे दिन तांबे के बक्से में रखी गई मूर्तियों को स्नान कराने की अलग ही परम्परा है। गहड़वाल खाम के मुखिया के पास बक्से की चाबी रहती है। जिसे वह वर्ष में इसी दिन अन्य खामों के मुखियों को सौंपते हैं। एक पुजारी व बागड़ जाति के एक व्यक्ति की आंखों पर काली पट्टियां बांधी जाती हैं। तांबे के बक्से व पट्टी बांधे व्यक्ति के ऊपर काला कम्बल डाला जाता है। तब बक्से को खोलकर पहले मां बाराही को हाथों के सहारे दूध में स्नान कराया जाता है। बाद में इस तांबे के बक्से को भव्य रूप से सजाकर डोले में रखकर मंदिर से कुछ ही दूरी पर ऊंचाई में स्थित मुचुकन्द ऋषि के आश्रम में जुलूस के रूप में लाया जाता है।

चम्पावत जनपद मुख्यालय से मात्र 57 किमी. की दूरी पर नैनीताल व अल्मोड़ा जनपद की सीमाओं से लगा यह स्थल देवीधुरा न केवल प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है अपितु ‘‘मां बाराही का पवित्र धाम’’ होने के कारण इस स्थान का अत्यधिक धार्मिक महत्व भी है। स्वयं में असंख्य पौराणिक गाथाओं को समेटे चारों ओर से देवदार के हरे भरे वृक्षों से घिरा, समुद्र तट से लगभग 7000 फीट की ऊंचाई पर स्थित व निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम से 125 किमी. की दूरी पर बसा देवीधूरा एक अत्यन्त रमणीय व मनोहारी स्थल है।कुमाऊंनी भाषा में धूरा का अर्थ ‘सघन वन’। इसी शब्द से देवीधूरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। ‘देवी’ अर्थात ‘बाराही देवी’ और धुरा अथा ‘सघन वन’। अर्थात वह सघन वन जहां बाराही देवी का मंदिर स्थित है। यहां से हिमालय की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के साक्षात् दर्शन किये जा सकते है। समस्त उत्तर भारत में लोकप्रिय हो चुके बाराही मंदिर के इस पौराणिक मंदिर के विषय में इसी तरह की अनेक लोकगाथाऐं तथा किवदन्तियां प्रचलित है। पर मंदिर के निर्माण के समय व तत्कालीन परिस्थितियों के विषय में आज भी निश्चित रूप से कोई तथ्य उपलब्ध नहीं हैं।
तीन विशाल शिलाखण्डों के बीच स्वतः ही एक मंदिर निर्मित हुआ है। जिसमें जाने के लिए एक संकरी गुफा से होकर जाना पड़ता है। इस गुफा में अत्यन्त कठिनाई से झुककर प्रवेश करना पड़ता है व बचने का कितना ही प्रयास किया जाये। शरीर का कोई ना कोई भाग पत्थरों को अवश्य छू जाता है। पर यह एक आश्चर्य का विषय है कि जब एक मोटे तगड़े भैंस को भी इसी गुफा से होकर गुजरना पड़ता है। तो वह बिना दिवारों को स्पर्श किये आराम से निकल जाता है। मंदिर की दायी ओर विशाल पत्थर के बीच एक चौकोर गहचर है। इसमें सपाट पत्थर पर प्राकृतिक रूप से बना हुआ शिवलिंग है।

लोकगाथा के अनुसार पहले बाराही देवी को उपरोक्त प्रतिमा सोने की बनी थी। पर एक बार एक पुजारी की नियत में खोट उत्पन्न हो गया और वह यह देखने के लिए कि मूर्ति में कितना सोना है। उस मूर्ति को तुड़वाने एक सुनार के पास ले गया। सुनार ने मूर्ति पर प्रहार करने हेतु जैसे ही हथोड़ी उठाई, वैसे ही मूर्ति से रक्त की धारा फूट पड़ी और मूर्ति अदृश्य होकर पुनः मंदिर में आ गई। कहा जाता है कि तब से उस मूर्ति को जो भी देखता है वह अन्धा हो जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले आषाढ़ कौतिकी मेले के दिन-प्रतिदिन बढ़ रही प्रतिष्ठा के चलते अब जिला प्रशासन ने मेले में आने वाले श्रद्बालुओं की सुविधाओं के इंतजाम अपने हाथ में ले लिए है। युद्घ से पूर्व विधि-विधान तथा बाजे-गाजे के साथ की गई पूजा के बाद मंदिर के मुख्य पुजारी द्वारा किये गये शंखनाद से युद्व प्रारम्भ होता है। युद्घ में आज तक किसी भी व्यक्ति की मौत नहीं हुयी। ऐतिहासिक युद्घ में गहरवाल खाम, लमगडि़या खाम, वालिगया खाम तथा चम्यालखाम नामक कुल 4 खेमों के सैकड़ों रणबाकुरे बने योद्बा पूरब-पश्चिम में 2-2 खेमों में बंटकर मुख्य पुजारी द्वारा युद्व रोकने की घोषणा तक युद्घ लड़ते रहते हैं।
युद्घ में बांस की बनी फरो को योद्वा अपनी सुरक्षा हेतु इस्तेमाल करते हैं। युद्घ में भाग लेने वाले योद्धाओं में कभी भी आपस में कोई दुश्मनी नहीं होती है। एक अन्य कथा के अनुसार कुरूक्षेत्र मैदान में महाभारत युद्घ में भी इस क्षेत्र के लोगों द्वारा ही युद्घ किया था। इस परम्परा को जीवित रखने के लिए भी यह युद्घ खेला जाता है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्र मास कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक चलने वाले इस मेले के दौरान रक्षा बंधन के दिन होने वाले बग्वाल में देवीधुरा के आसपास के ढरांज, कोहला, कटना, स्यूड़ा, मथेला, छाना, सिलपड़, दादिनी, गवई, मौरना, जाख, अर्नपा, रिखौली, बसान, पाटी इत्यादि अनेक गांव के ग्रामीण शामिल होते हैं। इस युद्व में शामिल होने वाला योद्धा एक माह पूर्व से ही व्रत इत्यादि कर स्वयं को शुद्घ करता है। युद्घ में भाग लेने वाले योद्वा की पवित्रता हेतु अपनी पत्नी तक के हाथ का खाना भी खाना वर्जित होता है। योद्वा की शुद्घता ही उसे घायल होने से बचाती है।
पर्वतीय क्षेत्र में उगने वाली जहरीली बिच्छू घास से घायल हुये योद्धा को ठीक किया जाता है। युद्घ में प्रत्येक खाम का नेतृत्व सेनापति की भूमिका निभाने वाला प्रधान करता है। युद्व लड़ रहे योद्वाओं की मदद हेतु आसपास के ग्रामीण मददगार बनकर योद्वा के रूप में खोलीखाड़ मैदान में उतरते हैं। खाम के प्रधान की नियुक्ति वंश के आधार पर की जाती है। मंदिर परिसर में चलने वाले बग्वाल को आसपास के ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में भी पूर्ण सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस दौरान यदि आसपास कहीं किसी की मौत हो जाये तो उसका दाह संस्कार बग्वाल समाप्त होने के बाद ही किया जाता है। कालांतर में अब यहां पर पत्थरों के स्थान पर फलों से युद्ध किया जाता है।
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-रामाकांत पंत/सुरेश पाठक

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