उत्तराखण्ड
जानिए, क्या है रूपकुंड का रहस्यमयी इतिहास
देवभूमि उत्तराखंड में अनेक रहस्यमयी स्थल हैं। इन रहस्यमयी स्थानों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। इस बार हम आपको उत्तराखंड के एक ऐसे रहस्यमयी स्थान के बारे में बताने जा रहे हैं जो सदियों से अनसुलझी है। वह है रूपकुंड,इसे कंकालों की झील, के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि समय-समय पर इस रहस्यमयी झील को लेकर अनेक दावे होते रहे हैं, वैज्ञानिकों की टीमें यहां आकर कई रहस्य उजागर कर चुकी हैं, लेकिन इसके बावजूद भी रूपकुण्ड झील का रहस्य आज भी बरकरार है। इसके पीछे अनेक कहावतें हैं। उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में बर्फीली चोटियों के बीच स्थित रूपकुंड झील में एक अरसे से इंसानी हड्डियां बिखरी हुई हैं। पिछले 78 सालों से भी अधिक समय बीत गया है, वैज्ञानिक हिमालय पर्वतों के बीच बसी इस झील के रहस्यमयी खोज पर लगी है। रूपकुंड झील समुद्रतल से क़रीब 16,500 फीट यानी 5,029 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद है। यह झील हिमालय की तीन चोटियों, जिन्हें त्रिशूल जैसी दिखने के कारण त्रिशूल के नाम से भी जाना जाता है,के बीचों बीच स्थित है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के रूपकुंड का इतिहास 2800 साल पुराना बताया जाता है। इस झील में आज भी सैकड़ों नर कंकाल मौजूद हैं, जिनका गहरा रहस्य छुपा हुआ है। विगत कई वर्षों से वैज्ञानिकों ने अनेक दावे किये हैं, हैदराबाद सीसीएमबी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने इन नर कंकालों का डीएनए किया था,जिसमें 23 भारतीय नर कंकाल होने का दावा किया था,जबकि शेष दक्षिण पूर्व एशिया के होने को कहा गया। वैज्ञानिकों ने दावा करते हुए 72 नर कंकालों को बाहर ले जाकर डीएनए टेस्ट किया, जिसमें से शुरुआती 23 नरकंकाल भारतीय मूल के और 14 ग्रीस मूल के होना बताया। शेष नर कंकाल दक्षिण पूर्व एशिया के रहने वाले माने गये। वैज्ञानिकों की इस टीम ने यह भी दावा किया की रूपकुंड की इस रहस्यमयी झील में दो अलग-अलग हादसे हुए, जो तकरीबन एक हजार साल के अंतराल में हुए। यह भी माना गया कि भारतीय मूल के जो अवशेष मिले वह सातवीं से दसवीं सदी के बीच हुए अलग-अलग हादसों के हैं। इस शोध के बावजूद रूपकुंड का रहस्य अभी भी अनसुलझा ही है। हालांकि वैज्ञानिकों का दावा है कि इस रहस्यमयी झील में जितने भी नर कंकाल हैं, वह निश्चित अलग-अलग हादसों के हैं। वैज्ञानिकों की एक टीम का यह भी मानना है कि यहां पूर्व में जितने भी लोग आए वह आपदा के चलते मारे गए।
उत्तराखंड के इस बर्फीली झील में मौजूद लगभग 500 से अधिक नरकंकालों को लेकर अलग अलग किस्से हैं, कहा जाता है कि यह नरकंकाल उन्हीं लोगों के हैं जिन्होंने यहां इस झील के बारे में जानने की कोशिश की और वह फिर वही मर गए,कभी वापस नहीं लौटे। आपको बता दें कि इस झील तक पहुँचने का रास्ता बेहद जटिल है। पहली बार 1942 में ब्रिटिश वन विभाग की टीम जब यहां पहुँची तब उन्होंने सैकड़ों बिखरे नरकंकालों को देखा। विकराल नजारा देख उनके साथ चल रहे मजदूर वहां से भाग खड़े हुये। इसके बाद पहली बार 1957 से 1961 के बीच यहां कई बार नर कंकालों को बाहर ले जाकर शोध किया गया।
शोध में यही पाया गया कि नरकंकाल गम्भीर चोट लगने से मरे। बर्फीली पहाड़ियों के बीच बसी यह झील बर्फ से जमी रहती है,गर्मियों में जैसे ही बर्फ पिघलने लगती है तब चारों ओर बिखरे हुए नर कंकाल दिखाई देते हैं। हर बारह साल के बाद नंदा राजजात यात्रा के दौरान ही श्रद्धालुओं को यहां से गुजरना होता है। रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी (नन्दादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयाँ करते हैं।
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