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उत्तराखण्ड

पिंडारी, कफनी ग्लेशियर,सुन्दरढूंगा घाटी तक पहुँचने को खुले रहते हैं तीन जिलों के रास्ते,आपसी समन्यव की जरूरत

चांदी की तरह चमकती हिमालयी श्रृंखलाएं, मनोहारी प्रकृति की अदभुत सुंदरता,उचे-उचे पहाड़ो से गिरते झरना,चारो तरफ विखेरी इंद्रधनुषी छटा इन पहाड़ी वादियों में किसी भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पर्यटक व साहसिक पर्यटन से जुड़े लोंगो के लिए ग्लेशियर जाना , ट्रेकिंग करना,पहाड़ चढना, इसको करीब से जानना और खुद छूकर इसके एहसास को जीवंत रखना सबसे प्यारी चीज़ होती है। लेकिन मौसम के बदलते रुख और उचित समन्यव के अभाव में अब यह ट्रेकिंग जान पर भारी पड़ रही है। इसलिए इसे संगठित व तकनीकी से जीडीए जाने की बहुत जरूरत है। जिससे इस क्षेत्र में शौकीन लोगों को कम से कम न्यूनतम सुविधा और सुरक्षा दी जा सके। इससे जहाँ देश-दुनिया मे ज़िले के साथ-साथ प्रदेश व देश , अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बनाती है वही नए लोगों को भी इसमें आने का रोमांच बना रहता है। स्थानीय स्तर पर आर्थिकी व रोजगार भी उत्पन्न होता है। पर्यटन व इससे जुड़े लोगो में यह क्षेत्र सदा ही उच्च आकर्षण का केंद्र बना रहता हैं। पिंडारी, कफनी ग्लेशियर और सुंदरढूंगा घाटी के ट्रेकिग रूट अलग-अलग होने के कारण प्रशासन के पास भी ट्रेकरों की जानकारी नहीं होती है।

चमोली, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले से अधिकतर ट्रेकर हिमालय की तरफ जाते हैं। तीन जिलों के बीच समन्वय नहीं होने के कारण आपदा आने पर उन्हें रेस्क्यू करना मुश्किल हो जाता है। पिछले तीन दिनों से अधिक समय तक बड़ी मुश्किल से जिला प्रशासन की टीम सुंदरढूंगा में हताहत पांच बंगाली ट्रेकरों का शव प्राप्त कर पायी। गाइडों के अनुसार कुछ ट्रेकर सुंदरढूंगा से चमोली जिले की तरफ भी जाने की सूचना है। लेकिन उनकी सलामती के लिए केवल दुआएं की जा सकती है।
स्थानीय पर्वतारोही बताते हैं कि ट्रेकर पिथौरागढ़, बागेश्वर और चमोली जिले से भी पिडर घाटी की तरफ प्रवेश करते हैं। जिनके लिए गोगिना, धूर और खाती में पंजीकरण केंद्र की स्थापना की जा सकती है। वाहनों की रूटीन चेकिग भी तय होनी चाहिए। खरकिया और खाती में वन विभाग की चौकी खुलने पर उसका लाभ नहीं मिलेगा। एक रास्ता सौंग से भी जाता है। यह पैदल रास्ता है और धाकुड़ी होते हुए खरकिया पहुंचता है। इसके अलावा यहीं से दूसरा रास्ता सूपी गांव जाता है और ट्रेकर सीधे खाती पहुंचते हैं। चमोली जिले से आने वाले ट्रेकर धूर पहुंचते हैं।

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स्थानीय गाइड जरूरी

देसी और विदेशी ट्रेकरों के साथ स्थानीय गाइडों की मदद जरूरी होनी चाहिए। स्थानीय गांव के लोगों का पिडर घाटी एक तरह से जंगल है। वह लगभग प्रतिदिन हिमालय की तरफ आते और जाते हैं। यदि पर्यटक भटक गए तो उन्हें यह लोग रास्ता दिखाने आदि में मदद कर सकते हैं। भविष्य में अगर इस घटना से सबक सीखकर कोई नीति निर्माण करनी हो तो ग्लेशियर के नज़दीक गांवो के लोगो को इसका एक हिस्सा बनना होगा। पहाड़ो, ग्लेशियरों में ये अपना दैनिक जीवन व्यतीत करते है। इसीलिए ये इन्हें सबसे अधिक पहचानते हैं।
प्रशासन को आपदा के समय सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बादियाकोट, बाछम, खाती आदि स्थानों पर सेटेलाइट की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन यह शोपीस बने हुए हैं। इसके अलावा धूर में लगा बीएसएनएल का टावर भी ठप है। यदि स्थानीय ग्रामीणों को वाकी टाकी रखने की अनुमति मिलती है तो यह ट्रेकरों के लिए भी लाभदायक रहता।
वर्तमान की घटना से पाठ सीखकर भविष्य को इन ट्रेकर्स के लिए अधिक से अधिक सुरक्षित बनाने के लिए किसी न किसी को तो ज़िम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी।

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ बागेश्वर, उत्तराखंड
(लेखक साहसिक पर्यटन,पर्यावरण संरक्षण व शैक्षणिक क्षेत्रो से जुड़े है)

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