उत्तराखण्ड
सेकेन्ड वर्ल्ड वार के नायक पान सिंह ने 101 साल में जिन्दगी को किया अन्तिम सैल्यूट
अपने डॉक्टर पोते से साझा करते थे युद्ध के वह क्षण, जब उन्हें सोना पड़ा था लाशों के संग
-नवीन बिष्ट
अल्मोड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के पुरोधा अदम्य साहस के लबरेज सैनिक पान सिंह बिष्ट जीवन की 101 वर्षों की ऐतिहासिक यात्रा के बाद गत दिवस चिर विश्राम में लीन हो गए। कुमाउं रेजिमेन्ट से सेवा निवृत्त नायब सुबेदार बिष्ट जितनी बहादुरी से दूसरे विश्व युद्ध में अपने युद्ध कौशल और अनुशासन के लिए अपने रेजिमेन्ट के अधिकारियों के प्रिय थे, रिटायरमेन्ट के बाद भी सिविल जीवन में सेना जैसे नियमों का पालन करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा रहा। अनुशासित जीवन शैली वाले व्यक्ति का सामाजिक जीवन स्नेह से ओत-प्रोत हुआ करता था। यही कारण है कि उनके गांव पड़ोस के लोग नाते रिश्तेदार उनकी सदासयता को लेकर चर्चा कर रहे थे। प्रातः उठने से लेकर नाश्ता, लन्च हो या शाम की चाय या फिर डिनर सब अपने निर्धारित समय पर होता था। यही उनकी निरोगी व लम्बी आयु का राज रहा है। वादा खिलाफी के सख्त खिलाफ हुआ करते, कहते हर व्यक्ति को वचन व शब्दों को मूल्य मानने व समझने वाला होना सफल जीवन की पहली शर्त होती है। अपना हर काम अपने हाथों से करना उनकी आदत का हिस्सा था, दूसरे से भी अपने परिवार में यही आशा रखते, यही कारण है कि यह रवायत उनके परिवार की चौथी पीढ़ी में दिखाई देती है।
1922 में अल्मोड़ा जनपद के स्याल्दे बिखौती जैसे पारम्परिक ऐतिहासिक संस्कृति की अन्चार समेटे द्वाराहाट क्षेत्र के रावलसेरा गांव के शिव सिंह बिष्ट से घर में उनका जन्म हुआ। पाँच भाइयों में सबसे बड़े थे पान सिंह बिष्ट, भरे पूरे परिवार में तीन पुत्र लक्षमण सिंह बिष्ट, अल्मोड़ा मैग्नेसाइट से सेवा निवृत्त हुए दूसरे पुत्र हीरा सिंह सेना में, तीसरे पुत्र रमेश बिष्ट संजय गांधी पीजीआई में तैनात रहे। सभी पौत्र अच्छे व्यवस्थित ही नहीं विदेश में सेवा दे रहे हैं। जीवन के अन्तिम क्षणों में अपने बड़े पुत्र लक्षमण, हीरा सिंह व बहू भगवती के साथ रहे। थर्ड कुमाउं रेजिमेन्ट से 1965 में रिटायर होगए। अपने सैनिक जीवन में उन्होंने जहाँ दूसरा विश्व युद्ध अपने नवयुवक के रूप में लड़ा वहीं अपनी युवा अवस्था में चीन और पाकिस्तान से हुए युद्ध में हिस्सा लेकर अपने रण कौशल के पिछले अनुभवों से दुश्मन सेना को उनके ठिकानों पर जाकर ललकारा ही नहीं बल्कि उनको सबक सिखाने का भी काम किया।
अपने पोते डा. संतोष बिष्ट से छात्र जीवन में बताते कि दूसरे विश्व युद्ध का समय सच में रोमांचित करने वाला रहा। उस समय अक्सर आमने-सामने की लड़ाई होती थी, आज के जैसे आधुनिक हथियार नहीं होते थे। ऐटोमैटिक हथियार थे लेकिन पर्याप्त नहीं होते थे। उस समय युद्ध कौशल ही नहीं बुद्धि चातुर्य से दुश्मन सेना को परास्त करने के तरीके यों तो पहले ही ट्रेनिंग के दौरान सिखाया जाता था, लेकिन कई बार युद्ध के समय अपने विवेक से रणनीति बनानी पड़ती थी। उस समय सच में भाग्य और अपने ईष्ट देवता को याद कर धन्यवाद देते थे जब कान, सर के ऊपर अगल-बगल से गोली सनसनाती हुई निकल जाती। एक बात थी मन में कभी भय का प्रभाव नहीं आता था बल्कि जोश से सामने वाले वैरी को मार गिराने का भाव प्रधान होता था। एक बात जो अकल्पनीय सी लगती है कि कई बार युद्ध के दौरान ऐसे भयावह पल भी आए जब लाशों के ढेरों पर सोना पड़ा था। आज भले ही स्वप्न लोक की सी बात लगती है लेकिन उस समय वह युद्ध का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था। अपने पोते को बताते कि पाक व चीन के युद्ध के समय स्थितियां कुछ बदलती जरूर रही। लेकिन युद्ध के तौर तरीकों में भी आधुनिकता का प्रभाव देखने को मिला था। एक दौर तो ऐसा देखा जब बूट वर्दी भी इतनी पर्याप्त नहीं थी, कहा जा सकता है कि अभाव ही होता था। आज तो पूरे विश्व की सेना बहुत ही जीवन रक्षक साजो सामान के साथ युद्ध में जाते हैं, आज स्थितियां बदली हैं, अच्छा समय है आज। उनकी अन्तिम यात्रा के समय जिला सैनिक कल्याण लीग के सुबेदार मेजर हरी सिंह भण्डारी, सैनिक संगठन के अध्यक्ष सूबेदार ललित सिंह नेगी, कैप्टन बहादुर सिंह, कैप्टन खीम सिंह, रमेश सिंह, राजेन्द्र सिंह चौधरी, कैप्टन मोहन सिंह बिष्ट, वीरेन्द्र नेगी, भूपाल सिंह भरड़ा बसन्त सिंह नेगी सहित अनेक पूर्व सैनिकों के सेना की परंपरा के अनुसार सेल्यूट कर अन्तिम विदाई दी।