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उत्तराखण्ड

उत्तराखंड- कुमाउनी बोली पर लिखी शानदार कविता ‘यो बुड़ंयाकाल,

सभी को एक न एक दिन इसी रास्ते से गुजरना ही होता है, बुढ़ापा। बुढ़ापा को कुमाऊनी बोली में ‘बुड़ंयाकाल, कहा जाता है। इस पर जयदेव पाण्डे द्वारा शानदार कविता लिखी गई है। श्री पांडे भी शेरदा अनपढ़ की तर्ज पर कुमाऊनी कविता लिखते हैं, आइये आप भी आनंद लीजिए बुड़ंयाकाल का।

यो बुड़ंयाकाल

बिन चशमै देखिने नै,
बिन एयरफौन सुणीन नै,
बिन डैन्चर खईन नै,
बैठि गयो फिर उठीन नै।

भूख अब लागीन नै,
के खाओ अब पचन नै,
डबल न्हैगो दवाइन में,

नानतिन अब आपुण मनाक हैगे,
ब्वारी अब फैशन में रैगे,
कान में मोबाइल चिपकिये रैगे,
ठुल,सयाण अब कोई नी रैगे।

चेलि बेवाई ससुरालिक हैगे,
च्याल कमूण हूँ परदेश न्हैगे,
बुढ़ बाढ़ी घर में इकलै रैगे,
उननकै देखणी कोई नै।

ससुर ज्यू अब डैडी हैगे,
सासु अब मम्मी हैगे,
जेठ ज्यू अब दाज्यू हैगे,
पति दगड़ अब कै रिश्त रैगे,
यो बतूंणी कोई नै।

सैणी ले अब बुढ़ी हैगे,
ऊलै अत्ति चिंगानि हैगे,
जस पैली छी उस उस नि रैगे,
पैैलि चन्द्रमुखी छी
अब ज्वालामुखी हैगे।

कैले यो कविता मिकैँ व्हटसैप
मेँ भेजि मिकैँ भल लागी तो
तुम लोगन केँ भेजणँयू।
– जयदेव पाण्डेय

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