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ग़ज़ल, जो कह देती हैं बहुत कुछ की अब—
ग़ज़ल, जो कह देती हैं बहुत कुछ की अब——
दुश्वारियां कम ना होंगी
गर अशांति के हाथ पड़े
दुश्वारियां कम ना होंगी
समझाना-बुझाना ही पड़ेगा बुझे मन को
टूटते सपने जुड़ने कम ना, होंगे
यहाँ तो पग-पग में बिछाई गई हैं तोपें
बिखरे उड़े चिथड़ों को सिलने वाले कम ना होंगे
लुटाई जाती हैं दौलत सरेशाम बाजार में कुछ इस तरह—–
हर चीज़ नही खरीदी जा सकती समझने वाले कम ना होंगे
कौन मौज़ कर रहा है इधर बेफिक्र होकर
पक्ष-विपक्ष में बैठकर बातें हो रहीं होंगे
गुत्थम -गुत्था की जद्दोजहद में सब
एक-दूसरे को निशाना बना रहे होंगे
कोई गिर कर संभल भी गया तो
उसको गिराने सब आ रहे होंगे
बेगर्द जमाने का तंज़ सुनाकर
खुद के अफसाने सुना रहे होंगे
जमीं पर नही है पॉव जिनके मगर
वो औरो को जमीं की पकड़ समझा रहे होंगे
शिगूफा छोड़ अंगुली से इशारा कर
खुद चौराहे पर मगर औरों को रास्ता दिखा रहे होंगे
दुश्वारियां बड़ी है इस वक़्त में भी
लेकिन सच बताने से बच रहे होंगे
नही घटेगी अशांति जब तलक
वो शांति को हर रोज़ घटा रहे होंगे
ये कहकर बढ़ेंगी दुश्वारियां उनकी
इसलिए कहने से बच रहे होंगे
आखिर कब तलक लिखा तख्ती का यूं ही
एक दिन प्रेम ये मिटा रहे होंगे।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ पिथौरागढ़
उत्तराखंड