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उत्तराखण्ड

देवभूमि में चैत्र मास पर भिटौली की परंपरा का है अनूठा संबंध

-अब आनलाईन ही सिमटने लगी है भिटौली की परंपरा

रानीखेत(अल्मोडा़)। भारतभूमि और देवभूमि उत्तराखंड अपनी परंपराओं ,संस्कृति के लिए सदैव ही विश्वविख्यात रहे हैं। हमारी परंपराऐं आपसी प्रेम भाव सौहार्द को भी सदैव संरक्षित करने का कार्य करते हैं। आजकल आधुनिकता की भागमभाग में परंपराऐं भी पीछे छूटते जा रही हैं तो अनेक परंपराऐं विलुप्त होते जा रही हैं। आजकल सभी कार्य आनलाईन होने लगे हैं तो इसका प्रभाव चैत मास में आने वाली भिटौली की परंपरा पर भी स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। आजकल आनलाईन ही बेटी अथवा बहनों के खातों में भिटौली के लिए धनराशि भेज दी जाती है तो आनलाईन विडियो काल से बातें करके भी भिटौली की परंपरा को निबटाया जाने लगा है। चैत्र मास में गाँवों में भिटौली में मिले पकवान, मिठाई, गुड़ बाँटने वालों की भीड़ लगी रहती थी किन्तु आधुनिकता में ये परंपरा सिमटकर रह गयी है। भारतभूमि व देवभूमि उत्तराखंड के गाँव परंपराओं के संरक्षण के मुख्य कारक हैं ।

आज गाँवों में परंपराओं को संजोये रखने के रूप में चैत (चैत्र) का महीना शूरू होते ही एक नई उमंग का संचार होने लगता है। क्योंकि इसे ‘रंगीलो चैत’ के नाम से भी जाना जाता है, और हमारे भारतीय संस्कृति के अनुसार भी चैत्र मास से ही नव वर्ष का आरंभ होता है। यह भी माना जाता है कि चैत्र मास में भारतीय नव संवत्सर का आरंभ होता है और सभी मांगलिक कार्यो, पूजा पाठ, विवाह, समारोहों आदि का आयोजन भी इसी वर्ष (वार्षिक पंचाग) के आधार पर ही किया जाता है।

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कुमाँऊ संस्कृति में चैत्र माह का एक विशेष महत्व यह भी है कि इसमें भिटौली की परंपरा प्रचलित है। भिटौली में माता पिता अथवा भाई द्वारा शादीशुदा बेटी अथवा बहिन को भिटौली (भिटोई) दी जाती है जिसमें चैत्र मास के महिने में बेटी या बहन के लिए नए नए कपड़े, मिठाई, घर में तैयार किये गये पकवान गुड़ आदि वस्तुऐं ले जाई जाती हैं। जिस दिन घर में भिटौली आती उस दिन उत्सव का माहौल हो जाता, भिटौली के पकवानों को वह अपने परिवार,गांव में बाँटती हैं। किन्तु आज पहाड़ पर पलायन, बदलते सामाजिक परिवेश और भौतिकतावाद का जिन परंपराओं पर असर पड़ा उनमें भिटौली भी प्रमुख है।आज आधुनिकता के दौर में भिटौली से जुड़े इन गीतों का औचित्य भी विलुप्त होते जा रहा है।
वर्ष दिन को पैलो मैहणा, मेरि ईजु भिटौली ऐजा,
आयो भिटौली म्हैणा, मेरि ईजु भिटौली ऐजा।।

     देवभूमि के गांवों में अब चैत्र मास में भिटौली की गठरी अब सिर पर रखकर जाने वाले नहीं दिखते।आधुनिकता की चकाचौंध में यह परंपरा अब विलुप्त की ओर है। वर्षो से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी थी वह लगभग समाप्त होते जा रही है । लेकिन गांव आज भी इन परंपराओं को संरक्षित किये हुये हैं। हर परंपरा हमें आपसी एकता,प्रेम भाव व सौहार्द का पाठ पढ़ाती है। विकास के लिए आधुनिकता भले ही आवश्यक है किन्तु हमें अपनी संस्कृति सभ्यता व परंपराओं को संरक्षित करने की भी नितान्त आवश्यकता है।

भुवन बिष्ट,रानीखेत (अल्मोड़ा)

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