उत्तराखण्ड
उत्तराखंड के इक्कीस बरस
भारतीय गणराज्य के 27th राज्य के रूप में नवंबर 9 , 2000 को उत्तराखंड का जन्म हुआ. अधिकांशतः पहाड़ व पहाड़ों की अनियमित क्षृखलाओ, नदी , नालो, गधेरों से आछादित यह पहाड़ी राज्य चीन ,नेपाल, और तिब्बत की सीमा को प्रतिच्छेदित करता है.इन इक्कीस बरसों मे राज्य अपने शैशवकाल से यौवन पर आ चुका है। जिस मकसद के लिए राज्य की जरूरत थी वो आज भी पहुच से दूर है . एक राज्य आंदोलनकारी होने से मै इन सपनों को टूटते – विखरते देखकर क्षुब्ध हू. गावों से प्लायन को रोकना व रोजगार इस आंदोलन का दिल व दिमाग था. स्थिति जस की तस है. बल्कि हम एक कदम आगे चलकर दो कदम पीछे हुए है। प्लायन पर अगर समग्र व व्यावहारिक नीति बनाई होती तो ये कार्य योजना किसी हद तक बेरोजगारी कम कर सकती थी .न राम मिले न विशाले सनम सा चरितार्थ दिख रहा है. आकड़े बोलते है प्लायन दिन दो गुणी रात चौ गुनी बड़ा है. डेमोग्राफी ऋणतामक विचलन में है. सत्ता के विकेट तक हिले है.कई विधान सभा मैदानी क्षेत्रों मै विलय हो गयी है . गावों के गावों ,तोक खंडहरो में तब्दील हो रहे है . जनसंख्या घनत्व पहाड़ों में घटा है . जिन हवाओ ने बचपन की थाप दी ,शुद्ध पानी से यौवन चमका वही आज गुज़र बसर करने मे असहाय सी हो रही है. गुज़रा कल याद करने पर सिंहरन दौड़ जाती है. सीधे–सादे,भोले –भाले राज्य के आम नागरिक खिशयाई से नज़र आते है. घर –बार और स्वच्छ वातावरण छोड़ने का दर्द इनको ताउम्र सालता रहता है . चतुर नेताओ ने सब्जवाग दिखाकर वोट तो जरूर बटोरे लेकिन इस “माटी का लाल” उभयनिस्ठ होकर कोई अपनी जगह नहीं बना पाया . और न ही कोई अपनी कार्य से आम उत्तरखंडी का मन छू सका.
शिक्षा,प्रयोगों के प्रयास रथ से आगे नही बढ़ पाई . हमें किस प्रकार की शिक्षा की ज़रूरत है और क्या परोसा जा रहा है दोनों दो ध्रुवीय से प्रतीत होते है . चिकित्सा सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. उपचार के लिए लोग आज भी डोली से जाते है और उनको महानगरो के धन कुबेरो के चिकित्सालय मे रिफ़र कर दिया जाता है . ख़ुशियों की सवारी 108 भी आज तक डोली को प्रतिस्थापित न कर सकी. गरीबी ,निर्धनता से लड़ते – लड़ते किसी ने घर न छोड़ा हो तो बेकाबू जंगली जानवर बाघ, सुअर,कटुवा बंदर ने इनकी लड़ाई और बढ़ाई है . मूलभूत जीवनयापन की सुविधाओं ,पीने का पानी तक का मयस्सर न होना ,रोजगार के अवसरो का अभाव ,शराब की स्वीकार्यता , इन सबने मिलकर पहाड़ी मानस का जीवन पहाड़ के समान ही कठोर व इनके उम्मीदों पर कुठराघात किया है . व्यवस्था व उचित प्रबंधन के अभाव में नदिया प्यास बुझाए बिना चिढ़ाते हुए निकल जाती है.पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी पहाड़ के ही काम नहीं आ रही है. राज्य की बागडोर थामे लोग राज्य को कोन सी दिशा की और ले जा रहे है . व राज्य की क्या दशा बना रहे है . एक ज्वलंत प्रश्न है. सोचनीय है राज्य कल्याण की भावना सिरे से नदारद है .
क्यो न संयुक्त प्रयासो से देव भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनो से भरपूर सदानीरा बहती नदिया ,चार धाम व इन सबसे उपर मेहनतकस लोगो को जोड़कर तस्वीर के इस श्याह पक्ष्य को रोशन किया जा सकता है।
कर बुलंद तस्वीर मेरी
तिमिर मे कब तक रखोगे
दशा –दिशा खराब मेरी
इस पर रोशनी कब विखेरोगे.
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ पिथौरागढ़, उत्तराखंड