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साहित्य

हिंदी दिवस-हिंदी है हम, नही हैं कम

हर सुख-दुख में रहीं हिंदी
हवा भले ही हो कैसी चली।
शीश झुका सिर्फ तुम पर ऐसे
तू परछाई बन संग मेरे साथ-साथ चली।।

हिम्मत,हौसला,बहादुरी सब तुझसे
बोली, भाषा,जुवां, शब्द मेरे
तू मातृभाषा हिंदी मेरी
सारे-जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां जैसे।।

गर्व खुद पर हैं कि हिंदी तू मुझे मिली।
धन्यवाद ईश्वर का ये पैदाइशी मिली।
अदभुत संयोग हैं इस जमीं का इधर।
मैं हिंदुस्तान का और हिंदी जुवां मिली।

मेरी नज़रों से सपनों तक का चेतन,अर्धचेतन,होश-मदहोश होने तक का।
खुशी,चिल्लाना,रोना, बिलखना
सब कह देती हैं हिंदी,
पढ़ लेती हैं भावों को
सिहाराने से आँगन तक का।।

मेरी कविता,कहानी,चित्रों
आलेखों के साथ
घुल जाती है एक आदर्श विलायक की तरह हिंदी,
जिसे अलग करना मुश्किल नही असंभव हैं नेचुरल,
जैसे अलग करना हो प्रकृति को प्रेम के साथ।।

मेरी जीत में,मेरी हार में
विद्धता में,मूर्खता में
क्रोध में, प्रेम में,घृणा में, स्मृति-विस्मृति दोनों में,
सफलता-असफलता में
जन-परिजन,चित-परिचित में,
दिख जाती हैं हिंदी
बिल्कुल चमकते सूरज की तरह–——–।
घने,काले, डरावने बादलो के बीच में।।

हिंदी चाँद नही,
तारे भी नही हैं हिंदी,
ये चमकती हैं स्व-प्रकाश से,
आदित्य की तरह।
राष्ट्र को पुलकित करने
विखेरने रोशनी, प्रकाश-पुंज से
मूल स्रोत की तरह।।

दृश्य हैं,अदृश्य नही है हिंदी।
देश के जन – जन की स्थायी पहचान है हिंदी।

जिस देश में जन्म लिया
सुगंध माटी की विखेरी वहाँ,
बचपन, जवानी ,हर संस्करण जीवन का भरपूर आनंद लिया,
उऋण होने बसुंधरा में एक बीज ०००
आज मिट्टी से जा हैं मिला।
सनी मिट्टी से उपजा हैं तब
जाकर कही हिंदी बटवृक्ष मिला।

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ उत्तराखंड

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