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मक्सिम गोर्की:विचार क्रांति का द्रष्टा और स्रष्टा

“क्या हम सिर्फ़ यह सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे? बिल्कुल नहीं” “हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियाँ बाँधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं। हम न तो बेवक़ूफ़ हैं और न जानवर कि पेट भरने के अलावा और किसी बात की हमें चिन्ता ही न हो। हम इंसानो का सा जीवन बिताना चाहते हैं! हमें यह साबित कर देना चाहिए कि उन्होंने हमारे ऊपर खू़न पसीना एक करने का जो जीवन थोप रखा है, वह हमें बुद्धि में उनसे बढ़कर होने से रोक नहीं सकता!”
ये पंक्तियां मेक्सिम गोर्की एक मजदूर के मुँह से कहलवाते है कि हम इस व्यवस्था से क्यों लड़ रहे हैं.गोर्की का जन्म 28मार्च, 1868 को हुआ था.गोर्की का अर्थ रूसी भाषा में “कड़ुवा” होता है.साधारण परिवार मे जन्मे गोर्की का मूल नाम अलेक्सी मेक्सोविच पेशकोव था.वे रूसी कहानीकार, उपन्यासकार और आत्मकथा लेखक के रूप में ख्याति के शिखर पर पहुँचे. वे निझनी नोवगार्ड नामक स्थान पर जन्में जिसका बाद में उनके सम्मान में “गोर्की” नाम रख दिया गया.वे क्रांतिकारी विचारधारा के लेखक कहलाए। उनका निधन 14 जून, 1936 को हुआ.

“बाज़ के बारे में गीत” (1895), “झंझा-तरंगिका के बारे में गीत” (1895) और “बुढ़िया इजरगिल” (1901) नामक कृतियों में जहां एक ओर क्रांतिकारी भावनाएँ प्रकट हुई वहीं दो उपन्यासों, “फ़ोमा गार्दियेफ़” (1899) और ” वे तीन” (1901) में गोर्की ने शहर के अमीर और गरीब लोगों के जीवन का वर्णन किया है.सूर्य के बच्चे (1905), “बर्बर” (1905), “तलछट” (1902) आदि नाटकों में गोर्की ने बुर्जुआ विचारधारा के खिलाफ लिखा.
नाटक “शत्रु” (1906) और “मां” उपन्यास में (1906) गोर्की ने बुर्जुआ लोगों और मजदूरों के संघर्ष का वर्णन किया है. इन रचनाओं में गोर्की ने पहली बार क्रांतिकारी मज़दूर का चित्रण किया था.”आखिरी लोग”और “गैर ज़रूरी आदमी की ज़िन्दगी” (1911) में सामाजिक कुरीतियों की आलोचना है.”मौजी आदमी” नाटक में (1910) बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का व्यंगात्मक वर्णन है. इन वर्षों में गोर्की ने बोल्शेविक समाचारपत्रों “ज़्विज़्दा” और “प्रवदा” के लिये अनेक लेख भी लिखे. 1911-13 में गोर्की ने “इटली की कहानियाँ” लिखीं जिनमें आजादी, मनुष्य, जनता और परिश्रम की प्रशंसा की गई थी. 1912-16 में “रूस में” कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ था जिसमें तत्कालीन रूसी मेहनतकशों की मुश्किल ज़िन्दगी प्रतिबिम्बित होती है.

“मेरा बचपन” (1912-13), “लोगों के बीच” (1914) और “मेरे विश्वविद्यालय” (1923) उपन्यासों में गोर्की ने अपनी आत्मकथा लिखी है.

गोर्की क्रांतिदृष्टा और युगदृष्टा साहित्यकार थे.अल्योशा यानी अलिक्सेय मक्सिमाविच पेशकोफ यानी मक्सीम गोर्की पीड़ा और संघर्ष की विरासत लेकर पैदा हुए.उनके पिता लकड़ी के संदूक बनाया करते थे और माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल विवाह किया था, किंतु मक्सीम गोर्की सात वर्ष की आयु में अनाथ हो गए.

साम्यवाद एवं आदर्शोन्मुख यथार्थभाव के प्रस्तोता मक्सीम गोर्की त्याग, साहस एवं सृजन क्षमता के जीवंत प्रतीक थे.गोर्की का विश्वास वर्गहीन समाज में था एवं इस उद्देश्य- पूर्ति के लिए वे रक्तमयी क्रांति को भी उचित समझते थे.

उनके सृजनकाल में ही उनकी कृतियाँ विश्वभर में लोकप्रिय होना प्रारंभ हो गईं.भारत वर्ष में तो 1932 से ही उनकी रचनाओं ने स्वातंत्र्य संग्राम में पहली भूमिका संपादित की.उनका क्रांतिकारी उपन्यास ‘माँ’ जिसे ब्रिटिश भारत में पढ़ना अपराध था, यथार्थवादी आंदोलन का सजीव घोषणा-पत्र है.प्रसिद्ध लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने बड़े दिलचस्प तरीके से गोर्की की लोकप्रियता और पाठकों पर उनके प्रभाव को व्यक्त किया. 1968 में ‘सोवेत्स्काया कुल्तूरा’ (सोवियत संस्कृति) पत्र में छपे लेख में उन्होंने लिखा था ”दुनिया के किन-किन तीन लेखकों ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है. ऐसा प्रश्न पूछने पर आपको शायद यह उत्तर मिलेगा- मैक्सिम गोर्की, थामस मन और बर्नार्ड शॉ. अथवा यह- लेव तोलस्तोय, हेर्बर्ट वेल्स और मैक्सिम गोर्की. अथवा वह- चार्ल्स डिकेन्स, एर्नस्ट हेमिंगवे और मैक्सिम गोर्की. अथवा वह- गोल्सवर्दी, फ्रान्स काफका और मैक्सिम गोर्की.
हर बार तीन में से एक नाम अवश्य ही मैक्सिम गोर्की का होगा. स्वयं प्रेमचंद ने गोर्की के निधन पर अपनी पत्नी से उनकी चर्चा करते हुए यह कहा था- ”जब घर -घर शिक्षा का प्रचार हो जाएगा, तो क्या गोर्की का प्रभाव घर -घर न हो जायेगा. वे भी तुलसी-सूर की तरह चारों ओर पूजे जायेंगे.”

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’
पिथोरागढ़,उत्तराखंड
(लेखक सामाजिक विषयों के ज्ञाता हैं)

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