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राष्ट्रीय

हम मजदूर

काव्य कोना

*लेखक,कवि – डॉ राज सिंह सुकुमार कवि हैं। संस्कृति, समाज, धर्म, दर्शन पर उनके लेख विभिन्न राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित होते रहते हैं।उनकी कविताओं में सर्वहारा कमजोर वर्ग की आवाज भी है, और प्रकृति प्रेम जन्य प्रेम भी। श्रृंगार में वो बहुत सुंदर काव्य  रचना किये हैं। लेखक साहित्यकार भी हैं, एवं भारत सरकार में एक वरिष्ठ अधिकारी हैं। सामाजिक न्याय के लिये मुखर डॉ सिंह की एक कविता जो उन्होंने पिछले साल कोरोना के दौरान मजदूरों की दयनीय स्थिति पर लिखी थी, प्रस्तुत है।-

अपनी मिट्टी, गांव, बस्ती छोड़
तुम्हारे महल खड़ा करने निकला था
अपने ही मुल्क में अप्रवासी हो गया
मेरी मेहनत, मेरी बफादारी का यह सिला
कि तुम्हारी सेवा करते-करते
मैं आग उगलती सड़क पर जल रहा हूँ
और तुम मेरे लहू पसीने से खड़ी
आलीशान इमारतों में मदमस्त हो
मेरे गाँव की मिट्टी में नहीं उपजता विषाणु
मेरी झुग्गी-झोपड़ी से नहीं पनपती महामारी
मैले वस्त्र फटे पांव, उलझे केश
सब मंजूर है मेरे मजदूर बदन को
मेरी मिट्टी मेरी गऱीबी
खेत-खेत के कण-कण में
सने मेरे लहू पसीने की बूंदों से
असहा कष्टों के आँसुओं से
धान, बाजरा, गेहूं तिलहन
गन्ना, मक्का,दलहनों की
सम्पन्न खेती लहलहाती है
कोरोना नहीं, विषाणु नहीं
भूख, कंगाली बुझाती मेरी मेहनत

नहीं लाई कभी महामारी भुखमरी
मैं तुम्हारे महल खड़े करता हूँ
अट्टालिकाएं हवेलियां बनाता हूँ
वो ताजमहल, लालकिला, चारमीनार
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजे
मेरी ही अंगुलियों से दैवत्वाकार पाते हैं
मैं ही ऊबड़-खाबड़ रौंदकर
मार्ग, महामार्ग बिछा देता हूँ
झुग्गी में जीवन बिताकर
पांच, सात सितारा होटल बनाता हूँ
मैंने ही सत्ता का गलियारा बनाया
मैंने ही बंदरगाह बनाये
मेरे हाथों से बिछी
हवाई पट्टियों से उड़ान भरते हो तुम
मेरे हाथों से तोड़े पत्थरों पर बिछी
पसीने से पुख्ता मजबूत
रेल की पटरियों पर तुम
एसी सुपर एसी में चलते हो
और में सामान्य डिब्बे का
अनारक्षित यात्री ताउम्र
तुम्हारे पैरों के पास ऊंघता
सफर तय करता रहा
तुम्हारी आलीशान कारों
बसों, रेलों, जहाजों के
एक-एक कील -पुर्जे पर दर्ज हैं हम

ये हजारों मील फैली सड़कें
कंकड़-पत्थर, मिट्टी, तारपीन डामर संग
मेरे पसीने से सनी-पुती सड़कें
आज जला कर छील रही हैं
मेरे ही नंगे तलवों को
मेरे बच्चों के बदन को
यथा तुम्हारी विनाशकारी
विकासलीला का पाप
जेठ की आग में भुगत रही है
खाली पेट मेरी निर्दोष संतानें
जगह-जगह हादसों में मरता मैं
जलती सड़कें, काटती धूप
न कोई ठिकाना न रैन बसेरा
मैं अनवरत लौट रहा हूँ
अपने पितरों की मिट्टी की ओर
जिंदा पहुँचूँ या मृत
तुम बड़े आदमी, शिक्षित पढ़े आदमी
इज्जतदार अहम आदमी
सत्ता के हाकिम, पूंजी के कुबेर
इतने अमानवीय अंतर्मुखी निकले
तुम्हारी उपेक्षा
तुम्हारी अक्षमता
तुम्हारी अदूरदर्शिता
तुम्हारी अपरिपक्वता ने
मुझे सिर पर
चौका, चूल्हा, गुदड़ी गठरी बांधे
इक्कीसवीं सदी का विश्वगुरू
सम्पन्न संप्रभु भारत दिखा दिया
ये अनगिनत मौतें
सर्वहारा वर्ग की नहीं
मानवता की मौत है
बिना किसी युद्ध के मौत
कोरोना महामारी से नहीं
सक्षम वर्ग द्वारा अक्षम की मौत
तुम्हें फिर जरूरत पड़ेगी
भेड़ों के माफिक मेरे वोट की
गधे-खच्चर तुल्य मेरी मेहनत की
तुम नेता हो देश के कर्णधार
तुम उद्यमी पूंजीपति साहूकार
ख़रीद लोगे तुम फिर से
मेरी बिरादरी का अशेष अंश
जो भी बचेगा
इस महामारी की भागमभाग के बाद
किन्तु वो भी
मेरे जीवन -पोषण के लिये नहीं
अपनी तिजारत और सियासत की
सेहत और बुलंदियों के लिये

डॉ राज सिंह

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