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समसामयिकी

कोरोनाकाल: गज़ल

दास्ताँ दौरे-ए- वक़्त की भी गुज़र जायेगी
गर रखी हिम्मत और धीरज
तो ये सुनामी भी टल जायेगी
झेले है इंसां ने सदियों से गम
हर मोड़ पे इस बार भी
मौत पीछे छूट जाएगी
घड़ी इम्तिहान की है – सबकी मगर
दो ग़ज़ के फैसले से पुकार सबकी सुनी जायेगी
पहरा है हम पर और टेढ़ी नज़र
कदम बाहर खिंचे ड्योढ़ी से
तो मुसीबत गले लग जायेगी
महकेंगे आंगन,भरंगी मांगे फिर
शहर बिसावन नही
शमसान बिसावन हो जायेगी

लड़ाई जुनूनी है—-
क्योकि दुश्मन जिद्दी है
तोडना जरूरी है इसे
फासले से ये हसरत पूरी हो जाएगी
कल सूरज निकलेगा
तारे टिमटिमायंगे
तेरे जंग जीतने की कहानी
सबको पढ़ाई जाएगी
ताकत नही किसी में
जो हिला सके इस तरह
सताया बाकी तो
जड़े गहरी होती जाएँगी
एक श्वास मिले सबको प्रेम
ये विश्वास जीवन बचाएगी

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’, उत्तराखंड

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