समसामयिकी
क्या जनता सिर्फ आंकड़ा है सरकार के लिये
वर्तमान परिप्रेक्ष्य और कोरोना महामारी कहर, इसके ऊपर सरकारी बदइंतजाम। ये सब मिलकर एक कहानी बना रहे हैं। कहीं पर कुर्सी बचाने के लिये हजारों की भीड़ में चुनावी शंखनाद, गर्जना और दूसरी ओर महामारी से जान बचाने को जूझती जनता कराह रही है। कहीं ऑक्सीजन की कमी से मौतें तो कही सरकारी नियमों के मकड़जाल में फंसा आदमी जिससे जब चाहो ,जैसे चाहो, जितना चाहो कर वसूल लो। नियमों को ताक न सिर्फ जनता ही रख रही है बल्कि जनता के ये जनार्दन भी पालन करते नजर नहीं आ रहे हैं।
एक देश, श्रेष्ठ देश, एक कानून पर एक समान लागू नहीं। अपनी-अपनी सुविधानुसार लागू नियम कानून। इसे सही नहीं कहा जा सकता है। यह पचने वाली बात भी नहीं है। इंटरनेट व सोशल मीडिया के इस युग में जनता सब देख-सुन रही है। समय आने पर परखेगी भी, जनता मौन है मजबूर है, मगर मजबूत भी है।हो सकता है मौन रहकर अपनी शक्तियों की धार को कुन्द कर रही हो यह अलग बात है जनता निरीह भोली है, जरूरतमंद है। यही जरूरत सरकार ने अपनी पास रखी है।अपने नफे नुकसान के हिसाब से जनता तक पहुँच रही है। सरकार अपनी2 आमद प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कभी निम्न मध्यम वर्ग से लेकर उच्च मध्यम वर्ग तक वसूली से, तो कभी अल्प बचत पर भी मिले सूद के पैसों पर कैंची चलाकर तो कभी आपदा, महामारी के नाम पर बट्टा मारकर , डीजल, पेट्रोल के बढ़ते दामों को रोकने के नाम पर हाथ झाड़ देने, बैंक, पोस्ट ऑफिस, इंश्योरेंस दूसरे वित्तीय संस्थान की सभी सार्वजनिक जनहितकारी योजनाओं, सेवाओं से उगाही कर जनता तक पहुँच रही है। कोई संस्थान गर किसी कारणवश ठीक नहीं चल रहा तो उसे बीमार घोषित कर उसे बनियों को बेच दो। अकुशल गैर लाभान्वित वित्तीय संस्थानों को ठीक भी किया जा सकता है। बेचना तो अंतिम विकल्प होना चाहिए था।
आखिर हमने लोकतंत्र में सबसे बेहतर का चुनाव किया है। ये बेहतर हम तक क्यों नहीं पहुँच पा रहा है ? हमारी समस्यायें सुरसा के मुंह की तरह बड़ी जा रही हैं। रोजगार के अवसरों कब बढ़गे, लोगों का जीवन स्तर कब सुधरेगा, ये ही उम्मीद होती है एक अच्छी सरकार से। तकरीब सरकार किसी न किसी माध्यम से सभी तक पहुँचने का प्रयास करती है और देर सबेर पहुँचती भी है। जिन तक सरकारी सुविधा पहुँच रही है वह खुश और जिन तक अभी पहुँचनी है वो आशान्वित हैं। लेकिन इस वर्ग की आशाएं अब धूमिल होती जा रही हैं। इन्हीं के पैसों से मुफ्त का राशन, ईंधन, शिक्षा, आवास, परिवहन इत्यादि।जरूरतमंदों की मदद करना तो अच्छा है लेकिन किसकी पीठ पर सवार होकर। एक देश, एक संविधान पर चेहरों को देखकर बदलते परिधान।ये बातें अब जचती नहीं हैं। समग्रता की जरूरत है न की भेदभाव की। इसी से पैदा होता है प्रश्न कि जनता कहीं आंकड़ों भर तक के लिए तो नहीं? वोट बैंक की स्थापना में जाने कितने आंकड़े अवशेष हैं।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय
उत्तराखंड, लेखक समसामयिक विषयों के ध्येता हैं