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शिक्षा

चलो चले स्कूल चले,प्रवेशोत्सव सरकारी कॉलेजों की ओर

भारत जैसे विशाल भू-भाग और जनसँख्या वाले देश मे शिक्षा देने की बहुत विविधता हैं। यों तो संविधान के मुताबिक शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल हैं फिर भी अपने नागरिकों को केंद्र और राज्य शिक्षा देने के लिए स्वतंत्र हैं। कहने का तात्पर्य हैं शिक्षा की फिक्र राज्यों के साथ केंद्र को भी बराबर की हैं। इसीलिए पूरे देश में केंद्रीय विद्यालयों, जवाहर नवोदयो के साथ-साथ प्रत्येक राज्य सरकारी की अपनी अलग-अलग स्कूली,विद्यालयी व्यवस्था हैं। सरकार के साथ-साथ काफी पहले से गैर सरकारी संगठनों, प्राइवेट व पब्लिक स्कूल, मिशनरी स्कूल, औद्योगिक घराने के स्कूलों, चैरिटी स्कूलों इत्यादि भी समांतर रुप से संचालित हो रहे हैं। एक दफा तो देखने से लगता हैं बच्चों को शिक्षा देने के किए सब उमड़ पड़े हैं और फिक्रमंद हैं। सुनने में अच्छा लगता हैं। लेकिन जमीनी हकीकत से लंबे समय तक आंखे बंद नही की जा सकती। सरकार के साथ चलते-चलते एक अंतर भी अब साफ चिन्हित होता दिख रहा हैं। और बड़े स्केल पर एक ही देश मे भारत व इंडिया बन रहे हैं। इसे किसी भी कोण से उचित नही ठहराया जा सकता हैं। सर्व शिक्षा अभियान(अब समग्र शिक्षा) का नारा- सभी पड़े, सभी बड़े बड़ा अच्छा है , जमीन में उतारने की इसकी अच्छी खासी तैयारी चल रही हैं।

अप्रैल के महीने और माता-पिता,अभिवावक की स्कूलों में बच्चों के ऐडमिशन की जिद्दोजहद साफ देखी जा सकती हैं। बच्चो से , विज्ञापनों से , आस-पड़ोस से , समाज के विभिन्न स्रोतों से अधिकांश गार्जियन प्रभावित देखे जा सकते हैं। सुनी-सुनाई बातों में सीधे कूदने से पहले एक बारगी अध्यापकों से सीधी बातचीत कर लेनी बहुत जरूरी और फायदेमंद होता हैं जो सीखने, सूखने से सीधे जुड़े रहते हैं। सवाल आखिर बच्चों के भविष्य का जो हैं। विद्यालय की वास्तविक स्थिति को अपने विवेक से समझा जाता तो शायद ज्यादा बेहतर होता। इनसे कन्नी काटकर हम दो कदम आगे चलने की भले सोचते हो दरअसल हम सही में चार कदम पीछे चल रहे होते हैं।
आज सरकारी स्कूल दिन -प्रतिदिन उन्नति करते जा रहे है। इसका बड़ा कारण भी है। शिक्षक बनने की पात्रता इससे पहले कभी इतनी कठिन नही थी। इसका फायदा सीधे स्कूलों को मिल रहा हैं। योग्य एवं कम्पीटेंट टीचर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे रहे हैं। एक प्रकार से अध्यापक इन स्कूलों में विशेषज्ञ अध्यापक के रूप में हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की क्वालिटी में मात्रात्मक सुधार हुआ हैं। भवनों की स्थिति पहले से बेहतर हैं। सबसे बड़ी बात समावेशी शिक्षा यानी सभी वर्गों के लिए शिक्षा बिना किसी भेदभाव के इन स्कूलों की सबसे बड़ी खूबी हैं। तकरीब निःशुल्क शिक्षा से समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुचने वाली सोच सच होती दिख रही हैं। पाठ्य-पुस्तके, खेल का सामान, कंप्यूटर, विभिन्न छात्रवृति,संस्कृतियों का समागम, कला उत्सव, विज्ञान मेला, इंस्पायर अवार्ड, एन सी सी/एन एस एस, गणवेष, योग-ध्यान,प्रयाणाम,खुला मैदान,विद्यालय का सुरम्य स्थान में होना इत्यादि चीजों को सरकार ने निःशुल्क मुहैय्या करवाया है। ये भी एक कारण बनता दिख रहा है कि इन विद्यालयों के प्रति लोगों में आकर्षण बड़ा हैं। बड़ी संख्या में बच्चों का इनमें प्रवेश इसकी एक बड़ी वजह हैं। इन विद्यालयों में अब हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी पठन पठान बराबर रूप से किया जा रहा हैं। नई शिक्षा नीति के तहत तो उच्च माध्यमिक कक्षाओं से ही बच्चों में छिपी प्रतिभा, कौशल को व्यवसायिक रूप से तराशा जा रहा हैं।बच्चें इन स्कूलों में पड़कर वास्विक धरातल से नई-नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं। और माता-पिता, अभिवावकों में भी अपने बच्चों के प्रवेश को लेकर भ्रम की स्थिति कम दिख रही हैं। इसे एक सुखद एहसास के रूप में देखा जा सकता हैं। इन्ही स्कूलों के ग्राउंड ज़ीरो से शुरू कर कई लोग समाज में नए आयाम स्थापित कर चुके है।
हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में प्रवेश/दाखिला करवाकर उनके उज्ज्वल भविष्य की ओर चल चुके होते हैं। क्योंकि इनको संरक्षण देने वाले हाथ मज़बूत और ताकतवर दोनों है जो किसी भी बीज को बटवृक्ष बनाने तक में सक्षम और सुयोग्य हैं। खाली बांसुरी में कितना सामर्थ्य(पोटेंशियल) होता है अगर उसे उचित संगीत की ध्वनियों से भर दिया जाय, सरकारी कॉलेज/स्कूल/विद्यालय में इनको जीवंत होते देखा जा सकता हैं।

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ , उत्तराखंड

(लेखक दो दशकों से अधिक समय से शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं और विशेषज्ञ हैं)

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